एक दृष्टि में कृति परिचय : कृतिनाम– चमत्कारचिन्तामणि पद्यानुवाद– अर्थात् चमत्कारचिन्तामणि ज्योतिष ग्रन्थ का पद्यानुवाद, कर्ता–श्रीसार, कर्ता के गुरु का नाम–रत्नहर्ष–खरतरगच्छीय क्षेम/खेमकीर्ति शाखा, भाषा–पुरानी हिन्दी, कृति प्रकार–पद्य। विषय–ज्योतिष, दोहा परिमाण–१०८, रचना संवत्–वि.सं.-१७वीं अनुमानित, संलग्न कुल हस्तप्रतों की संख्या–२१ है। वर्त्तमान में उपलब्ध सूचना के अनुसार यह जानकारी दी गई है। सूचीकरण कार्यगत प्रत संपादनादि कार्यों में शुद्धि–वृद्धिपूर्वक प्रत सम्बन्धी सूचनाओं में परिवर्तन सम्भव है। कृति की मूलभूत सूचनाएँ यथावत् रहेंगी।
प्रत परिचय– कोबा ज्ञानमन्दिर के हस्तप्रत भण्डार में उपर्युक्त कृति की कुल २१ प्रतें हैं। इसमें १० प्रतें सम्पूर्ण हैं एवं ११ प्रतें अपूर्ण हैं। यहाँ पर इन सभी प्रतों का परिचय देना सम्भव नहीं है। दो-चार प्रतें होती हैं तो वाचकों को प्रत की जानकारी के लिये अवश्य ही परिचय दे देते हैं। सम्पादन-संशोधन कार्य में अधिकाधिक प्रतें मिल जाएँ, इसके लिये उपलब्ध कुल प्रतों की जानकारी दी गई है। ये सभी प्रतें वि.सं. १८वीं से २०वीं के मध्य में लिखी गई प्रतें हैं। प्रत संख्या १३३७२४ यह एकमात्र प्रत संवत् १७९१ की है। ज्योतिष विषयानुरागी संशोधन-सम्पादन पिपासु आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर-कोबा में आवेदन देकर इन प्रतों की छायाप्रतियाँ प्राप्त कर सकते हैं, इससे सम्बन्धित अन्य जानकारी भी प्राप्त कर सकते हैं।
विद्वान व कृति परिचय– प्रस्तुत कृति चमत्कारचिन्तामणि नामक मूल कृति संस्कृत भाषा में है। ज्योतिष विषयक चमत्कारचिन्तामणि नाम कृति के ३ अलग-अलग कर्ता मिलते हैं। १.गर्गाचार्य, २.नारायण भट्ट व ३. राजऋषि भट्ट। इसमें कर्ता नारायण भट्ट रचित मूलकृति के पद्यानुवादकर्ता खरतरगच्छीय क्षेम/खेमकीर्त्तिशाखा के रत्नहर्ष के शिष्य श्रीसार कवि है। इनको सार कवि भी कहा जाता है। इनकी रचनाओं में श्रीसार व सार दोनों शब्द मिलते हैं। इनके द्वारा रचित विभिन्न कृतियों में उल्लिखित रचना संवत् वि.सं.१६४२ से लेकर १७२० प्राप्त होते हैं। इससे इतना तो तय है कि वि.सं. १७वीं से १८वीं के मध्य ये विद्यमान थे। इनका जन्म कहाँ, किस वर्ष में हुआ आदि बातों की जानकारी के लिये इनकी रचित कृतियों एवं खरतरगच्छीय पट्टावली आदि सन्दर्भ ग्रन्थों से ज्ञेय है।
कोबा-ज्ञानमन्दिर में सन्दर्भ सूचनादि प्राप्त इनके द्वारा रचित कुल ७९ कृतियाँ मिलती है। कल्पसूत्र की संस्कृत भाषा में कल्पमञ्जरी टीका, पार्श्वजिन स्तवनादि आदि कृतियाँ भी सम्मिलित हैं। देशीभाषामय सर्वाधिक कृतियाँ मिलती है। वे प्राकृत, संस्कृत व देशी भाषा के विद्वान के साथ-साथ कवि भी थे। इनकी रचनाओं से पता चलता ही है कि ये बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।
प्रस्तुत कृति ज्योतिष विषयक चमत्कारचिन्तामणि संस्कृत कृति का मारुगूर्जर पद्यानुवाद है। इसमें इन्होंने तन्वादि १२ भावों के नवग्रह की शुभाशुभ दृष्टि को लक्ष्य में रखकर सरल व सहज बोधगम्य रूप से प्रस्तुति की है। संस्कृत भाषा न जाननेवाले ज्योतिष विषय के जिज्ञासु इससे लाभान्वित हो सकते हैं।
मूल कृति में १११ श्लोक हैं। बारहों भाव में प्रत्येक भाव के १२–१२ श्लोक प्रायः मिलते हैं। पद्यानुवाद में भी इसी क्रम से दोहे मिलते हैं जो कुल १०८ दोहे होते हैं। यह एक लघुकाय कृति है। कवि द्वारा मंगलाचरण नहीं किये जाने से एवं प्रारंभिक पहली गाथा में “अब फल बारह भुवन को” इस पाठ से ऐसा लगता है कि यह कृति मध्यभाग वाली है। परन्तु जिस तरह संस्कृत मूलपाठ है, उसी प्रकार से पद्यानुवाद हुआ है। पहला दोहा प्रास्ताविक है, विषयवस्तु दोहा–२ से शुरु होता है। ज्योतिष विषय में बारह भवन व उस पर नवग्रहदृष्टि एक महत्त्वपूर्ण भाग होता है। इसी पर व्यक्ति का शुभाशुभ परिणाम, भावी घटनाक्रम आदि का विचार किया जाता है। यह जन्मकाल से लेकर मृत्यु पर्यन्त यानि कि मनुष्य जब तक जीवित रहता है, तब तक वह नवग्रह की शुभाशुभ दृष्टि का प्रभाव उस पर होता ही है। ज्योतिष एक विज्ञान है, इस विषय के द्वारा मनुष्य ज्योतिषीय गणना के द्वारा घटित होनेवाले अशुभ परिणाम से बचने हेतु ग्रहशान्ति, दान, पूजन, रत्नधारण करके अरिष्ट शान्त कराने हेतु उद्यत रहता है। उचित समय पर किया गया उपचार असरदायक होता है।
इस पद्यानुवाद पर टबार्थ, बालावबोधादि कोई कृति रची नहीं गई है। अब तक की जानकारी के अनुसार यह अप्रकाशित है। कदाचित् कहीं किसी और स्थान से प्रकाशित हो, यह हमें ज्ञात नहीं है।
चमत्कारचिन्तामणि पद्यानुवाद का आदिपद-
युं विचार ज्योतिष को, कहत न आवत पार। अब फल बारह भुवन को, वरणत है कवि सार॥
चमत्कारचिन्तामणि पद्यानुवाद का अन्तिम पद-
ऐसे बारह भुवन पर, ज्योतिषशास्त्र विचार। फल नवग्रह को वर्णव्यो, सार बुद्धि अनुसार॥
वाचक व संशोधकों से नम्र निवेदन है कि इस कृति को संपादन-संशोधन द्वारा श्रुतसेवा में हाथ बँटाकर जनहित हेतु उपकारी बनें। आपकी जिज्ञासा की पिपासा को तृप्त करना ही हमारा लक्ष्य व ध्येय है। अपना सुझाव अवश्य दें। सुज्ञेषु किं बहुना॥
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