एक दृष्टि में कृति परिचय : मूलकृतिनाम–जातकराजपद्धति, कर्ता–पं.यशस्वत्सागर, गुरु–यशःसागर, गच्छ–तपागच्छ, भाषा–संस्कृत, कृति प्रकार–पद्य. विषय–ज्योतिष, अधिकार–१६, लेखन व रचना संवत्–१७६२, लेखन व रचना स्थल–नरायणानगर, संलग्न कुल हस्तप्रतों की संख्या–४ है। वर्तमान में उपलब्ध सूचना के अनुसार यह जानकारी दी गई है। सूचीकरण कार्यगत प्रत संपादनादि कार्यों में शुद्धि–वृद्धिपूर्वक प्रत सम्बन्धी सूचनाओं में परिवर्तन सम्भव है। कृति की मूलभूत सूचनाएँ यथावत् रहेंगी।
प्रत परिचय– कोबा में उपलब्ध उपर्युक्त कृति की कुल ४ प्रतें हैं। ये चारों प्रतें श्रीविजयधर्मलक्ष्मीज्ञानमन्दिर आगरा से भेंट में मिली हैं। सूचीपत्र क्रमांक-३ में प्रत क्रमांक-१२२९२-अपूर्ण है, १३६१६ में बीच का एक पत्र नहीं है, १३६२० सम्पूर्ण है और प्रत क्रमांक-१४६४५ अपूर्ण है, यह सूचीपत्र क्रमांक-४ में मुद्रित है। सभी प्रतों की भौतिक स्थिति प्रायः ठीक है। प्रथम दो प्रतें संवत् १८वीं से १९वीं के बीच की लिखी जाने की सम्भावना है। प्रत नं. १३६२० प्रतिलेखक विचारसागर द्वारा लेखन संवत् १७४१ में तक्षकपुर में लिखा गया है। यद्यपि यह लेखन संवत् संदिग्ध प्रतीत होता है, कारण कि अन्य संदर्भ ग्रंथों में इस कृति का रचनाकाल १७६२ बताया गया है तो रचनाकाल से पहले लेखनकाल कैसे होगा? प्रतिलेखन पुष्पिका में उल्लेख इस प्रकार है-संवत् १७४१ वर्षे वैशाखशुक्लसप्तम्यां लिखिता पं. विचारसागरेण॥ श्रीतक्षकपुरमध्ये॥ वाच्मानाश्चिरं॥ प्रत नं. १४६४५ में प्रतिलेखन पुष्पिका इस प्रकार है- इति श्रीतपगच्छीय श्रीयशःसागरगणिशिष्य भुजिष्य पं.यशस्वत्सागरगणिसमर्थितायां यशोराजी जातकराजपद्धतौ दशान्तर्दशाध्यायः षष्टः स्पष्टतया प्रादुर्बभूवेति श्रेयःश्रेणयः॥ संवत् १७६२ वर्षे श्रीनरायणानामनगरे लिवीकृता पं यशस्वत्सागरेण॥ इस पुष्पिका वाक्य से कर्ता और लेखक दोनों ही पं. यशस्वत्सागरजी है। अब कृति का वास्तविक रचना वर्ष क्या माना जाय यह संशोधन का विषय है । इस कृति को जब प्रकाशित की जाएगी उस समय सुचारु रूप से निर्णय किया जाएगा। इस कृति पर कार्य करने वाले ज्योतिषविषय रसिक जिज्ञासु आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर-कोबा में आवेदन देकर इन प्रतों की छायाप्रतियाँ प्राप्त कर सकते हैं।
विद्वान व कृति परिचय– प्रस्तुत कृति तपागच्छीय श्री यशःसागर गणि के शिष्य श्री यशस्वत्सागर गणि के द्वारा निर्मित है। इनका दूसरा नाम जसवंतसागर भी है। विभिन्न सन्दर्भ ग्रन्थों में प्राप्त सूचनानुसार कुल १८ जितनी इनकी रचनाएँ मिलती हैं। ज्योतिष के साथ-साथ जैन न्यायदर्शन सम्बन्धी भी इनकी कृतियाँ हैं। इनकी रचनाओं को देखने से ऐसा लगता है कि अपने समय के एक मूर्द्धन्य विद्वान रहे होंगे। रचना प्रशस्ति के अन्तर्गत इन्होंने अपना परिचय इस प्रकार दिया है- तपागच्छाधिपति विजयप्रभसूरि की परम्परा में चारित्र सागर–कल्याणसागर–यशःसागर के शिष्य यशस्वत्सागर। इनके द्वारा रचित इस कृति को भी कई नामों से जाना जाता है, यह विभिन्न प्रतों और इस कृति के विभिन्न स्थलों से ज्ञात होता है। जैसे कि-जातकराजपद्धति, जातकपद्धति, ग्रहलाघवपद्धति, यशोराजीपद्धति व राजपद्धति। इनकी यह रचना स्वतंत्र मौलिक न होकर ग्रहलाघवसूत्र पर से की गई है। भाषा-संस्कृत व पद्यमय रचना है। इसमें कुल १६ अधिकार हैं। १६ अधिकारों का नाम प्रत संख्या-१३६१६ के अंतिम पृष्ठ पर बीजक रूप में उल्लिखित है। महाराजा जयसिंह के काल में इस कृति की रचना हुई है। विविध यन्त्र, कोष्ठकादि उदाहरणों के द्वारा बताए जाने से यह कृति व्यवहारोपयोगी है।
कर्ता ने प्रारम्भिक मंगलाचरण में विद्यागुरु एवं सरस्वतीदेवी को प्रणाम करके ग्रहलाघवोक्त पद्धति की रचना करने की बात करके दूसरे श्लोक में अपने नाम का उल्लेख किया है।
कृति का मंगलाचरण श्लोक–
श्रीमद्विद्यागुरुं नत्वा, ध्यात्वा देवीं सरस्वतीम् ।
ग्रहलाघवसूत्रोक्त पद्धतिं रचयाम्यहम् ॥१॥
कृति का अंतिम प्रशस्ति श्लोक–
इत्थं निर्वाणभावप्रथितबहुमुदामोदभावं सुबिभ्रत्,
प्राप्तं षोडशभिः प्रकाशविषयैर्जाताधिकारैः स्फुटम् ।
श्रीमच्छ्रीजयसिंहदेवनृपतेः पत्रीं समासाद्य सत्–
पूर्णेऽयं किल राजपद्धतिरियं सर्वात्मना श्रीप्रदा ॥
यद्यपि अलग-अलग प्रतों में आदिवाक्य और अन्तिमवाक्य के पाठ में अन्तर है, अधिकार संख्या में भी अन्तर है। शुद्ध व नियत पाठ को निश्चय करने हेतु और भी प्रतों का संग्रह करना होगा। इसके बाद सुसंपादन के समय सभी बिन्दुओं पर ध्यान देकर स्पष्टता करनी होगी। अप्रकाशित ज्योतिष कृति की सम्भावना को ध्यान में रखकर परिचय दिया जा रहा है। कहीं से प्रकाशित यदि होगी तो, उसकी हमें कोई जानकारी नहीं है। यदि अप्रकाशित ही है तो इसे प्रकाशित करने हेतु विद्वद्वर्ग सचेष्ट रहें। यही नम्र निवेदन है। सूचना प्रदान करने में कहीं भूल हुई हो तो नीरक्षीरविवेकी सुधीजन क्षमा करेंगे। नई-नई अप्रकाशित कृति के परिचय से लाभान्वित होकर अपना सुझाव अवश्य दें। अलमितिविस्तरेण सुज्ञेषु किं बहुना॥
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