– गजेन्द्र शाह
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा
Abstract
आधुनिक इतिहासकारों ने बौद्ध ग्रंथों के कतिपय आधारों से बुद्ध एवं महावीर को समकालीन माना है। बुद्ध एवं महावीर की समकालीनता प्रस्थापित करने के लिए बौद्धग्रन्थों के साथ जैनागमों का अध्ययन भी अत्यंत आवश्यक है। बौद्धग्रन्थों में महावीर स्वामी के लिए निवेदन किए गए हों और जैनागमों में बुद्ध के संदर्भ में एक भी प्रमाण, उल्लेख प्राप्त न होता हो तो दोनों की समकालीनता सिद्ध करना मुश्किल या संदिग्ध हो जाता है, अत: हमनें जैनागमों का अध्ययन कर उनमें से प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से कहीं बौद्धमत के बारे में उल्लेख मिले इस दिशा में संभवत: प्रयास किये हैं। जिन-जिन भी आगमसूत्रों में थोड़ा-सा भी बौद्धमत के करीब का कुछ भी अंश प्राप्त होता हुआ नज़र आया है, उसे हमनें ध्यान में लिया है। महावीरकालीन (श्वेताम्बरमतमान्य) मूल अंगसूत्रों में किस संदर्भ में क्या है तथा परवर्ती चूर्णिकार एवं टीकाकार ने उसे किस संदर्भ में प्रस्तुत किया है, वह भी हमनें पूरी प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। साथ ही हमनें मूल के संदर्भ में तथा परवर्ती चूर्णिकार, टीकाकार के संदर्भ में अपने तर्कसंगत विचार भी प्रस्तुत किये हैं।
महावीरस्वामी के समय में रचे गए अंगसूत्रों में बुद्ध का उल्लेख होना, नहीं होना, यह बड़े प्रमाण की बात है, अतः उसे ही इस लेख के माध्यम से दर्शाने का प्रयास किया गया है। अंगसूत्रों से हमें क्या मिला है और शोधार्थी विद्वानों को किस प्रकार की सामग्री उपयोगी सिद्ध हो सकती है, वह तो संपूर्ण लेख पढ़ने के बाद ही पता चल पाएगा।
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गौतमबुद्ध और महावीर स्वामी की समकालीनता, जैन एवं बुद्ध धर्म की प्राचीनता, कालगणना आदि मुद्दों को लेकर विद्वानों में काफी मत-मतांतर हैं। बुद्ध, महावीर स्वामी के बाद हुए या पहले? यदि पहले हुए तो कितने समय पहले हुए और यदि बाद में हुए तो कितने समय बाद में हुए? इन सभी प्रश्नों के वास्तविक उत्तर को पाने के लिए तत्कालीन प्राचीन, अतिप्राचीन साहित्य पर शोधकर्ताओं की नज़र टिकी हुई है। क्योंकि परवर्ती समय के ग्रंथों या प्राचीन अंगसूत्रों पर रची गई परवर्ती टीका आदि पुत्रकृतिओं में रचयिता द्वारा अपने समय की परिस्थिति एवं जानकारी का प्रभाव आना संभवित है।
पूर्ववर्ती घटना का उल्लेख परवर्ती ग्रंथों में आना स्वाभाविक है, लेकिन परवर्ती घटना का उल्लेख पूर्वग्रंथों में होना अस्वाभाविक है। इसी बात को मध्यनजर रखते हुए देखा जाय कि, यदि महावीर स्वामी के समय में या उससे पूर्व समय में बौद्धधर्म का अस्तित्व प्रभावशाली रूप से रहा होगा तो महावीर स्वामी के समय में रचित द्वादशांगी के किसी भी अंगसूत्र में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में बौद्धमत का उल्लेख मिलना चाहिए। द्वादशांगी वह है कि महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य सुधर्मास्वामी ने समस्त अक्षर संयोजनों से बनने वाले श्रुतज्ञान (सुनकर जाना जा सके वह ज्ञान) को बारह भागों में विभाजित कर ग्रंथित किया था। अर्थात् समस्त श्रुतज्ञान के बारह विशिष्ट अंग की आगमग्रंथों के रूप में रचना की थी। इनमें समस्त पदार्थों, पर्यायों, प्रसंगों, धर्मोपदेश, इतिहास आदि का समावेश हो जाता है।वर्तमान में बारह में से ग्यारह अंग आंशिकरूप से विद्यमान हैं।
वर्तमान में उपलब्ध ११ अंगसूत्रों में से किसी भी सूत्र के मूलपाठ में स्पष्टरूप से बौद्धमत का, गौतमबुद्ध का, शाक्य या तथागत बुद्ध का उल्लेख हमें नजर नहीं आया है। फिर भी जिन अंगसूत्रों में बौद्धमतमान्य बातों से कुछ हद तक साम्यता रखने वाले कुछ प्राचीन मतों की बातें नजर में आई हैं उन्हें आपके समक्ष सह प्रमाण हमारे विचारों के साथ यथावत् प्रस्तुत करते हैं।
महावीरकालीन मूल अंगसूत्रों के अन्तर्गत प्राचीन मतों को परवर्ती चूर्णीकार तथा टीकाकार ने उनके समय में, उन प्राचीन मतों को महावीर स्वामी के परवर्ती समय में हुए बुद्ध ने अच्छे लगने पर अपना लिया हो और वे सारे मत चूर्णीकार व टीकाकार के समय में बौद्धमत के नाम से प्रसिद्ध होने के कारण उन प्राचीन मतों की व्याख्या करते समय उदाहरण के तौर पर सहज ही बौद्ध, शाक्य आदि के नाम से प्रस्तुत कर दिया है। यहाँ मूल में क्या शब्द, वाक्य, पाठ है और व्याख्याकारों ने क्या व्याख्याएँ की हैं, वह पूरी प्रामाणिकता एवं हमारे तर्कयुक्त विचारों के साथ आपके समक्ष यथावत् प्रस्तुत कर रहे है।
प्रथमअंग आचारांगसूत्र के श्रुतस्कंध १ के विमोक्ष नामक अध्ययन ८ के सूत्र-१-२ में साधुओं को अन्य मतावलंबिओं के साथ आहार- व्यवहार करने, नहीं करने के संदर्भ में अधिकार चला है। मूलपाठ में किसी मत या मतावलंबी का स्पष्टरूप से उल्लेख नहीं करते हुए वहाँ “समणुण्णस्स वा असमणुण्णस्स वा” पाठ दिया गया है।
निर्युक्तिकार भद्रबाहुस्वामी ने (नि.गा.२५३ में) "असमणुन्नस्स विमुक्खो पढमे" इतना कहा है। अर्थात् विमुक्ति नामक इस अध्ययन में असमनोज्ञ से विमुक्ति (असमनोज्ञ के त्याग की बात) प्रथम उद्देशक में कही गई है।
निर्युक्ति पर चूर्णिकार की व्याख्या- "असमणुण्णाणं तिण्हं तिसट्ठाणं कुप्पावयणियसताणं विवेगो कातव्वो, आहारउवहिसेज्जातो वि तेसिं संतियाओ वज्जेयव्वाओ" अर्थात् असमनोज्ञ ३६३ कुप्रावाचनिकों से विवेक करना चाहिए। आहार, उपधि, शय्यादि उनसे त्यागने चाहिए। समनोज्ञ की व्याख्या करते हुए कहा कि– "नाणादि पंचगे समणुण्णा, ते पासत्थादि चरित्ततवविणएसु असमणुण्णा, अहाछंदा पंचसु वि असुहरूवा" अर्थात् ज्ञानादि पञ्चक (पञ्चाचार) में जो समनोज्ञ कहा है, वह पासत्थादि है, वे (हैं एक मत के, लेकिन) इन पाँचों आचारों में अशुभरूप (योग्यरूप से पालन नहीं करने वाले), स्वच्छंदी, चारित्र–तप–विनय में असमान होते हैं। यह निर्युक्ति की व्याख्या में कहा है। मूलपाठ के सूत्र की व्याख्या करते समय चूर्णिकार ने "असमणुण्णो सक्कादीणं" अर्थात् शाक्यादि अन्य मत वाले असमनोज्ञ हैं। यहाँ चूर्णिकार ने अन्य मत के उदाहरण में शाक्यादि कहकर बौद्धमत का नाम दे दिया है।
मूलसूत्र का शीलांकाचार्य की टीका के आधार से समनोज्ञ का अर्थ है, जिनके आचार-विचार समान, लेकिन आहार-व्यवहार की मर्यादा समान नहीं है ऐसे साधु। असमनोज्ञ का अर्थ है जिनके आचार-विचार भी समान नहीं हैं, ऐसे साधु। मूल में किसी भी मत का नाम देकर बात नहीं कही गई है, लेकिन शीलांकाचार्य ने चूर्णिकार की तरह टीका में असमनोज्ञ की व्याख्या करते हुए उदाहरण के रूप में शाक्य मत का नाम सहज ही दे दिया है। यथा- “तद्विपरीतस्त्वसमनोज्ञः-शाक्यादिस्तस्य वा…” प्रस्तुत अध्ययन के मूल पाठ में उसके बाद वाले सूत्र क्र.- २ की वृत्ति में भी उन्होंने उल्लेख किया है कि- “ते हि शाक्यादयः कुशीला”। यहाँ मूल आगम में तो मात्र ‘अन्यमत’ इस अर्थ में ही बात कही है। कहीं पर भी स्पष्ट किसी मत का नामोल्लेख नहीं किया है। परवर्ती चूर्णिकार एवं टीकाकार ने ‘शाक्य’ का उल्लेख किया है। यहाँ पर हम कह सकते हैं कि, प्रथमअंगसूत्र के मूलपाठ में कहीं भी बौद्धमत का उल्लेख नहीं है।
पंच खंधे वयंतेगे, बाला उ खणजोइणो।
अण्णो अणण्णो णेवाऽऽहु, हेउयं च अहेउयं॥ (श्रुतस्कंध-१, अध्ययन-१, उद्देशक- १, गाथा-१७)
अर्थ– कुछ अज्ञानी क्षणमात्र रहने वाले पाँच स्कंध कहते हैं। वह भूतों से भिन्न एवं अभिन्न, कारण से उत्पन्न तथा बिना कारण से उत्पन्न आत्मा को नहीं कहते हैं।
पुढवी आऊ तेऊ य, तहा वाऊ य एगओ।
चत्तारि धाउणो रूवं, एवमाहंसु जाणगा॥ (श्रुतस्कंध-१, अध्ययन-१, उद्देशक- १, गाथा-१८)
अर्थ– पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु, यह चारों धातु के रूप हैं। यह चारों धातु देह के रूप में एकाकार हो जाने से वह जीवसंज्ञा को प्राप्त होती हैं, ऐसा (खुद को ज्ञानी) जानने वाले कहते हैं।
उपरोक्त गाथाओं में से एक गाथा में पंचस्कंधवाद-क्षणिकवाद, और दूसरी गाथा में चतुर्धातुवाद की बात कही है। प्रस्तुत गाथाओं पर निर्युक्ति उपलब्ध नहीं है, लेकिन अध्ययन से पूर्व इस अध्ययन के प्रथमोद्देशक में कहे जाने वाले ६ अधिकारों को दर्शाने वाली निर्युक्ति की गाथा में इसे अफलवादी कहा है, यथा-
महपंचभूय एकप्पए य तज्जीवतस्सरीरे य।
तह य अगारगवाती, अत्तच्छट्ठो अफलवादी॥३०॥
बीए नियइवाओ…
अर्थ- (प्रस्तुत अध्ययन के प्रथमोद्देशक में कहे जाने वाले ६ अधिकार इस प्रकार हैं-) पंचमहाभूतवादी, एकात्मवादी, तज्जीवतच्छरीरवादी, अकारकवादी, आत्मषष्ठवादी औरअफलवादी। द्वितीय उद्देशक में नियतिवाद…
इस प्रकार यहाँ निर्युक्तिकार ने पंचस्कंधवाद और चतुर्धातुवाद, दोनों को अफलवादी कहा है, ना कि बौद्धवादी। चूर्णीकार जिनदास गणि ने ‘शाक्यास्तु’ शब्दप्रयोग करके अपने समय तक प्रभावशाली हो चुके बौद्धमत ऐसा अर्थ किया है। शीलांकाचार्य ने ‘…साम्प्रतं बौद्धमते...’, ...‘एके’ केचन वादिनो बौद्धाः’…, …‘तमात्मानं ते बौद्धा नाभ्युपगतवन्त...,…‘बौद्धाश्चातुर्धातुकमिदं’…, आदि शब्दों से बौद्धमत का उल्लेख किया है, लेकिन मूलपाठ में बौद्धमत का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। वीर निर्वाण संवत १७० वर्ष के अंदर हुए भद्रबाहुस्वामी ने भी अपनी निर्युक्ति में बौद्धमत सूचक शब्द का प्रयोग न करते हुए अफलवादी शब्द का ही प्रयोग किया है। भद्रबाहुस्वामी केस्वर्गगमन समय निर्धारण के लिए गुर्वावली आदि कई प्रमाण उपलब्ध हैं, सभी ने एकमत से वीरनिर्वाण से १७० वर्ष को ही माना है। फिर भी यहाँ एक प्रमाण दर्शाते हैं–
चउपुव्वविवच्छेओ वरिससए सत्तरीए।
अहिअंमि भद्दबाहुंमि जाओ वीरजिणंदे सिवं पत्ते॥२२॥ (दुःषमगंडिका)
अर्थ– वीरजिणंद के मोक्ष प्राप्ति के बाद एक सौ सत्तर (१७०) वर्ष में भद्रबाहु में चार पूर्वों का व्यवच्छेद हुआ। अर्थात् भद्रबाहु के स्वर्गगमन के साथ अर्थयुक्त अंतिम चार पूर्वों का विच्छेद हुआ।
(श्रुतस्कंध-१, अध्ययन-३, उद्देशक- ४, गाथा-६-७)
इहमेगे उ भासंति सातं सातेण विज्जती।
जे तत्थ आरियं मग्गं, परमं च समाहियं॥६॥
मा एयं अवमण्णंता, अप्पेणं लुम्पहा बहुं।
एयस्स अमोक्खाए, अयोहारिव्व जूरह॥७॥
अर्थ– अत्र (मोक्षगमन विचार के विषय में) कुछ लोग कहते हैं कि, सुख से ही सुख की प्राप्ति होती है, लेकिन जो परम शांति को देने वाला आर्य मार्ग है, उसकी हे अवमानना करने वाले ! अल्प सुखों के लिए अधिक मूल्यवान् (मोक्ष) सुख को नष्ट मत करो। इसको (सुखेन सुखवाद को) नहीं छोडने से (सोना छोडकर लोहा लेने वाले) लोह वणिक की तरह अफसोस करोगे।
यहाँ प्रस्तुत मत हेतु (इन मूल गाथाओं पर निर्युक्ति उपलब्ध न होने से निर्युक्तिकार का अर्थ हम यहाँ नहीं दर्शा पा रहे हैं) चूर्णिकार ने गाथा-६ के पूर्व “इदानीं शाक्याः परामृश्यन्ते” (अर्थात् अब शाक्यों का परामर्श किया जाता है) करके शाक्यमत (बौद्धमत) की बात का उल्लेख किया है। टीकाकार शीलांकाचार्य ने भी गाथांश ‘एगे’ के अर्थ में “‘एके’ शाक्यादयः स्वयुथ्या वा”‘एके’ का अर्थ शाक्यादि अथवा कुछ जैन ऐसा किया है, मतलब की किसी एक अर्थ विशेष में यह शब्द प्रस्थापित नहीं था। मूल पाठ में शाक्य, बौद्ध, तथागत आदि किसी भी शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है।
प्रस्तुत अधिकार को समझने के लिए यहाँ चल रहे प्रसंग को थोड़ा जानना जरूरी है, वह इस प्रकार है- महावीर स्वामी के समय का एक पात्र है आर्द्रकुमार। वे स्वयं प्रतिबुद्ध होकर महावीर स्वामी से मिलने हेतु जा रहे हैं, रास्ते में ५०० चोर मिलने पर उसे प्रतिबोधित कर दीक्षा देकर अपने शिष्य बना लेते हैं। रास्ते में आगे जाने पर उन्हें विविध मतावलंबी मिलते हैं, वे उन्हें अपने धर्म की बातें बताकर अपने धर्म में खींचने का प्रयास करते हैं। प्रत्युत्तर में आर्द्रकुमार उन सभी मतावलंबिओं का जिनेश्वर प्रणीत धर्म के आधार पर खंडन करते हैं। इसी शृंखला में एक ऐसा भी मतावलंबी उन्हें मिलता है, जो कहता है कि-
पिण्णागपिंडिमवि विद्धसूले, केई पएज्जा पुरिसे इमे त्ति।
अलाउयं वावि कुमारग त्ति, स लिप्पइ पाणिवहेण अम्हं॥२६॥
अर्थ- कोई व्यक्ति खोलपिंड (पिले हुए तिल के पिंड) को भी यह पुरुष है ऐसा मानकर अथवा तुंबी को यह कुमार (बालक) है, ऐसा मानकर शूली में बिंधकर (पिरोकर) (अग्नि में) पकाता है, वह हमारे मत से प्राणी वध के पाप से लिप्त होता है।
अहवा वि विद्धूण मिलक्खू सूले, पिण्णागबुद्धीए णरं पएज्जा।
कुमारगं वा वि अलाउए त्ति, ण लिप्पइ पाणिवहेण अम्हं॥२७॥
अर्थ- अथवा कोई म्लेच्छादि, पुरुष को यह खोलपिंड (तिलपिंड) है, ऐसा मानकर अथवा कुमार (बालक) को यह तुंबा है, ऐसा मानकर शूली में पिरोकर (अग्नि में) पकाता है तो हमारे मत से वह प्राणीवध के पाप से लिप्त नहीं होता है।
पुरिसं व बेद्धूण कुमारकं वा, सूलंमि कई पए जाततेए।
पिण्णागपिंडिंसतिमारुहेत्ता, बुद्धाणं तं कप्पति पारणाए॥२८॥
अर्थ- किसी व्यक्ति, पुरुष या कुमार विद्यमान होने पर भी उसमें खोलपिंड का आरोपण करके (अर्थात् पुरुष या बालक को तिलपिंड मानकर) शूली में पिरोकर अग्नि में पकाता है तो वह (मांस हमारे मत से) बुद्ध पुरुषों के पारणे (भोजन) के लिए कल्प्य (स्वीकार्य) है।
यहाँ प्रस्तुत तीन गाथाओं में मूल ग्रंथकार ने उस समय विद्यमान एक मत की बात कही है, लेकिन वह मत कौन-सा, किसका, उसका कोई नामोल्लेख नहीं किया है। हाँ, यहाँ ‘बुद्धाणं’ शब्द से वाचकगण को बौद्धमत का भ्रम हो जाए, वह संभवित है। (जैन अंग आगमों में कहीं पर भी ‘बुद्ध’ शब्द, बौद्धमत वाचक अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है, अन्य ही विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है,उसकी चर्चा हम आगे करने वाले हैं) चूर्णिकार ने यहाँ क्या अर्थ किया है उसे भी देख लेते हैं-
चूर्णी में उपरोक्त गाथा के ‘बुद्धाणं’ पद का अर्थ इस प्रकार है-
‘बुद्धाणं’ति नित्यमात्मनि गुरुषु च बहुवचनं। बुद्धस्सवि ताव कप्पति किमु ये तच्छिष्याः? अथ बुद्धस्यापत्यानि बौद्धानि तेसि णं कप्पति पारणए भोजनायेत्युक्तं भवति।
अर्थ– ‘बुद्धाणं’(यहाँ व्याकरण के नियमानुसार) नित्य स्वयं एवं गुरुओं हेतु बहुवचन का प्रयोग किया गया है। बुद्धों को भी यावत् कल्पता है। उनके शिष्यों को, बुद्ध के पुत्र बौद्ध (नहीं कि बुद्ध धर्म को मानने वाले बौद्ध धर्मावलंबी), उन्हें ‘पारणे’ अर्थात् भोजन के लिए कल्पता है, ऐसा कहा गया है।
चूर्णि में ‘बुद्धाणं’शब्द हम जहाँ तक समझते हैं वहाँ तक जागृत-समझदार आत्मा के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। बुद्ध (ज्ञानी गुरु) के तथा उनके शिष्यों के (बौद्धों के) भोजनार्थ कल्प्य होने की बात कही गई है। यहाँ स्पष्टरूप से बौद्धमत, शाक्यमत की बात नजर नहीं आती है।
शीलांकाचार्य की टीका में उपरोक्त गाथा के ‘बुद्धाणं’ पद का अर्थ इस प्रकार है-
“तद्बुद्धानामपि पारणाय भोजनाय कल्पते” अर्थात् उन बुद्धों को भी ‘पारणे’ में अर्थात् भोजन में ग्राह्य है। यहाँ पर शीलांकाचार्य ने बुद्ध का कोई अर्थ नहीं किया है, लेकिन इस मतावलंबी की आगे की बात वाली गाथा के संदर्भ में गाथा के पूर्व में कहा कि- “पुनरपि शाक्य एव दानफलमधिकृत्याह”अर्थात् पुनः शाक्य दानफल को लेकर कहते हैं, ऐसा कहकर इस मतावलंबी का नाम शाक्य दर्शाया है। शाक्य अर्थात् बौद्धमत।
मूलपाठ में रहे “बुद्धाणं तं कप्पति पारणाए” वाक्य से प्रथम नजर में लगता है कि, यहाँ बौद्धों की बात है, लेकिन यथार्थ रूप में ‘बुद्ध’ शब्द के अर्थ व्यापक हैं। यहाँ जो ‘बुद्धाणं’ पद का प्रयोग हुआ है, वह शब्द बौद्धमत बोधक नहीं होकर बुद्धिमान, ज्ञानी, आचार्य आदि के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। बौद्धमत भिन्न ऐसे कई अर्थों में उत्तराध्ययन सूत्र आदि कई आगमों में बुद्ध शब्द प्रयुक्त हुआ है। शीलांकाचार्य ने स्वयं इसी ही सूत्रकृतांगसूत्र में ऐसे ही पद ‘बुद्धाणं’ का अर्थबौद्ध नहीं करके‘आचार्य’ किया है, यथा- श्रुतस्कंध-१, अध्ययन-९ गाथा- ३२ का पाठ “आरियाइं सिक्खेज्जा बुद्धाणं अंतिए सया” इसमें रहे अपेक्षित पद का टीका में अर्थ- ‘बुद्धानाम्’ आचार्याणाम् ‘अन्तिके’ समीपे अर्थात् आर्यों के योग्य (मुमुक्षुओं के योग्य) आचारों को आचार्यों के समीप रहकर सीखना चाहिए।
आर्द्र मुनि ने भी शील-गुणोपपेत जैन मुनि को बुद्ध कहा है। यह इसी सूत्र के इसी अध्ययन की एक गाथा में दृष्टिगोचर होता है, यथा-
निग्गंथधम्मम्मि इमा समाहि अस्सिं सुठिच्चा अणिहे चरेज्जा।
बुद्धे मुणी सीलगुणोववेए इहच्चणं पाउणई सिलोगं॥४२॥
अर्थ– इस निर्ग्रंथ धर्म में इस (आहारविशुद्धिरूप) समाधि में सम्यक् प्रकार से स्थित होकर इसी निर्ग्रंथ धर्म में विचरण करता है, वह बुद्ध मुनि शीलगुणों से युक्त होकर इस लोक में पूजा-प्रशंसा को प्राप्त करता है। इस प्रकार यहाँ ‘बुद्धाणं’ पद के योग्य अर्थ को हमनें दर्शाने का प्रयास किया है।
मूल की उपरोक्त गाथा की व्याख्या के अन्त में टीकाकार ने जो कहा कि “पुनरपि शाक्य एव दानफलमधिकृत्याह” अर्थात् उसके बाद वाली गाथा भी उसी मत को दर्शाने वाली है, यथा-
सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णियए भिक्खुयाणं।
ते पुन्नखंधं सुमहं जिणित्ता, भवंति आरोप्प महंतसत्ता॥२८॥
अर्थ- जो पुरुष दो हजार स्नातक भिक्षुओं को प्रतिदिन भोजन कराता है, वह महान पुण्यराशि का उपार्जन करके महासत्त्वशाली आरोप्य नाम का देव होता है।
‘स्नातक’ शब्द हेतु टीकाकार का अर्थ-
टीकाकार शीलांकाचार्य द्वारा प्रस्तुत मत वाले हेतु उपर से चले आ रहे अधिकार के अनुसार यहाँ स्नातक शब्द का भी अर्थ "स्नातका-बोधिसत्त्वाः" अर्थात् बोधिसत्त्व किया है।
‘स्नातक’ शब्द हेतु चूर्णिकार का अर्थ-
टीकाकार से पूर्व में हुए चूर्णीकार ने स्नातक शब्द का अर्थ टीकाकार की तरह न करते हुए कहा कि-“सिणातगा शुद्धा द्वादशधूतगुणचारिणो भिक्षवः” अर्थात् स्नातक शुद्ध बारह साधुगुणों के आचरण करने वाले भिक्षु। ऐसा अर्थ किया है।
‘स्नातक’ शब्द की भगवती अंगसूत्र में व्याख्या–
भगवतीसूत्र शतक २५ उद्देशक ६ में पाँच प्रकार के निर्ग्रंथ कहे हैं, उनमें पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रंथ और स्नातक का समावेश होता है।
सिणाए णं भंते! कतिविधे पन्नत्ते? गोयमा! पंचविधे पन्नत्ते, तं जहा-अच्छवी, असबले, अकम्मंसे, संसुद्धनाण-दंसणधरे अरहा जिणे केवली, अपरिस्सावी।
सिणाए णं० पुच्छा। गोयमा! एगम्मि केवलनाणे होज्जा।
यहाँ स्नातक पाँचवे क्रम पर है और स्नातक के भी पाँच प्रकार कहे गए हैं यथा- अच्छवि, अशबल, अकर्मांश, संशुद्धज्ञानदर्शन के धारक अरिहंत-जिन-केवली, अपरिश्रावी।
(अभयदेवसूरि की टीका पर से अर्थ-) घातिकर्मपटलमल को धोकर स्नात हुए अर्थात् जो घातिकर्मों से रहित केवली है, उसे स्नातक कहते हैं। वे चार घातिकर्मों के नाश के कारण सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हैं। (यहाँ तेरहवां-चौदहवां गुणस्थानक होने से भेद का कोई कारण नहीं है, फिर भी) सूत्रकार ने उनके पाँच भेद (पाँच गुणों को प्रगट करने हेतु से) दर्शाए हैं, यथा-
अच्छवी– योगनिरोध की अवस्था में छवि अर्थात् देहभाव से रहित।
अक्षपी– घातीकर्म क्षय के बाद उसमें किसी का क्षपण शेष नहीं होने से अक्षपी।
असबले– संपूर्ण दोष रहित अवस्था।
अकम्मंसे– घातिकर्म के अंशों से रहित।
संशुद्धणाण-दंसणधरे– विशुद्ध ज्ञान-दर्शन को धारण करने वाले अरिहंत-जिन-केवली।
अपरिस्सावी– कर्मबंध के आश्रव से रहित।
यहाँ ‘स्नातक’ शब्द का चूर्णीकार का अर्थ एवं भगवतीसूत्र का भी अर्थ हमनें देखा। इस प्रकार स्नातक विविध अर्थों का बोधक शब्द है, मात्र बुद्ध, शाक्य या तथागत का बोधक ही नहीं है। टीकाकार ने बोधिसत्त्व एवं शाक्य, भावानुगत व्याख्या की है। शीलांकाचार्य ने इसी सूत्रकृतांगसूत्र में इसी अध्ययन की गाथा-३६ की टीका में“सिणायगाणं” शब्द का अर्थ- षट्कर्माभिरता वेदाध्यापकाः शौचाचारपरतया नित्यं स्नायिनो ब्रह्मचारिणः स्नातकाः” अर्थात् छः कर्मों में अनुरक्त, वेदों के अध्यापक, शौच आचारवान् होने से नित्य स्नान करने वाले, ब्रह्मचारी स्नातक हैं। ऐसा अर्थ किया है, अतः गाथा-२८ में किया गया बोधिसत्त्व अर्थ भावानुगत ही समझना चाहिए।
स्थानांगसूत्र में अध्ययन- ८, सूत्र ७१२ में आठ प्रक्रार के अक्रियावादी दर्शाए गए हैं। उनमें "सायवादी -५ समुच्छेदवाती -६" पाठ आता है। अर्थात् सातावादी और समुच्छेदवादी, महावीर स्वामी के समय में प्रचलित इन दो मतों का भी उल्लेख है, जो बुद्ध द्वारा बाद में अपनाया गया है। यहाँ मूल सूत्र में उस समय में प्रचलित मात्र मत की (एक मान्यता, विचारधारा की) ही बात कही है, लेकिन उसको अपनाने वाले किसी पंथ का नाम नहीं दिया गया है। सातावादी अर्थात् सूत्रकृतांगसूत्र में जो कहा गया वह सुखेन सुखवाद और समुच्छेदवादी अर्थात् क्षणिकवादी अभिप्रेत है। टीकाकार अभयदेवसूरि ने टीका में (सूत्रकृतांग की तरह ही) इस मत की व्याख्या करते हुए लिखा है कि, "सुखासेवनात् सुखमेवेति" सुख के आसेवन से सुख की प्राप्ति होती है। उसके बाद टीकाकार ने "उक्तं च-" करके शाक्यमतदर्शक श्लोक दर्शाया है, यथा–
मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया, भक्तं मध्ये पानकं चापराण्हे।
द्राक्षाखण्डं शर्करा चार्द्धरात्रे, मोक्षश्चान्ते शाक्यपुत्रेण दृष्टः॥
अर्थ– कोमल शय्या, प्रातःकाल में उठते ही पेय का पान, मध्याह्ने भोजन, मध्याह्न के बाद पेय का पान, मध्यरात्रि में द्राक्षा, मिश्री, सर्करा का उपभोग और अन्त में मोक्ष, ऐसा शाक्यपुत्र (बुद्ध) ने देखा है।
मत की व्याख्या करते हुए कहीं पर भी मतावलंबी बौद्ध आदि का उल्लेख नहीं किया है, लेकिन 'उक्तं च' करके उदाहरण के रूप में शाक्यपुत्र का श्लोक उद्धरित किया है। उसके बाद क्षणिक मत की व्याख्या में किसी भी मतावलंबी की बात उदाहरण के तौर पर भी टीकाकार ने नहीं की है। (निर्युक्ति, चूर्णि इस आगम पर उपलब्ध न होने से उनके अर्थ हम यहाँ नहीं दे पाए हैं।)
भगवतीसूत्र में भी कुछ मतों का उल्लेख आता है परंतु टीकाका्र ने उन मतों हेतु अन्य तीर्थिक, अन्य युथिक आदि के रूप में संबोधित किया है बौद्ध या किसी मत विशेष के रूप में उल्लेखित नहीं किया है।
शतक-७, उद्देशक-१०में पाठ है– रायगिहे णामं णयरे…..तस्स णं गुणसीलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अण्णउत्थिया परिवसंति, तंजहा– कालोदाई सेलोदाई सेवालोदाई उदएणामुदएणम्मुदए अण्णवालए सेलवालए संखवालए सुहत्थी गाहावई।
अर्थ– राजगृहनगर के गुणशीलचैत्य(उपवन) से ज्यादा दूर नहीं एवं ज्यादा नजदीक भी नहीं ऐसे स्थान पर अनेक अन्य यूथिक(अन्यतीर्थिक)थे। यथा– कालोदायी, शैलोदायी, शैवालोदायी, उदक, नामोदक, नर्मोदक, अन्नपालक, शैलपालक, शंखपालक, सुहस्ती और गाथापति आदि। यहाँ धर्मास्तिकायादि पंचास्तिकाय के बारे में कालोदयी के द्वारा गौतमस्वामी से और बाद में महावीर स्वामी से प्रश्नोत्तर किये गए हैं।अंत में कालोदयी संतुष्ट होकर महावीर स्वामी के पास दीक्षित हो जाते हैं। इस प्रसंग में कहीं भी बौद्धमत का कोई उल्लेख नहीं है। टीकाकार अभयदेवसूरि(वि.सं. १२वीं सदी) ने भी मूलपाठ में रहे "अण्णउत्थिय" शब्द का अर्थ "अन्ययूथिक"(अन्यतीर्थिक) किया है।
शतक-८, उद्देशक-७ में साधुओं का अन्यतीर्थिकों के साथ का संवाद दिया हुआ है। वहाँ पर भी अन्यतीर्थिकों हेतु मूल में "अण्णउत्थिय" शब्द प्रयोग हुआ है और टीकाकार ने अपनी व्याख्या में वहाँ पर भी "अन्ययूथिक" ही अर्थ किया है। वैसा ही शतक-८, उद्देशक-१०, शतक-१७, उद्देशक-२ में भी ऐसा शब्द प्रयोग हुआ है। शतक-१८, उद्देशक-७ में मद्रुकश्रावक का अन्य यूथिकों के साथ पंचास्तिकाय विषयक वार्तालाप हुआ, वहाँ पर भी टीकाकार ने मूल के अनुसार यथावत् संस्कृत में अन्य यूथिक शब्द का ही प्रयोग किया है। शतक-१८, उद्देशक-८ में गौतमस्वामी काअन्य यूथिकों के साथ गमनक्रिया विषयक संवाद हुआ, वहाँ पर भी अण्णउत्थिय शब्द का प्रयोग हुआ है।
इस प्रकार पंचम अंगसूत्र भगवतीसूत्र में भी मात्र अन्य यूथिक(अन्यतीर्थिक) के अलावा कोई शब्दप्रयोग हमें नजर नहीं आया है।अर्थात इसअंगसूत्र में भी बौद्धमत का कोई उल्लेख नहीं है। ज्ञात हो कि, यह आगमसूत्र समस्त जैन आगमों में कद में सर्वाधिक बड़ा है। इसमें हजारों प्रश्नों, पदार्थों की प्ररूपणा की गई है।यदि महावीर स्वामी के समय बौद्धमत होता, तो इतने बड़े आकर आगम में कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में उनके मत का उल्लेख होता, लेकिन नहीं है।
ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र श्रुतस्कंध- १, नन्दीफल नामक अध्ययन- १५ में धन सार्थवाह का एक प्रसंग है। उसमें धन सार्थवाह, चंपानगरी से अहिच्छत्रा नगरी की ओर प्रयाण करने वाला था, तब उसने समस्त नगर में घोषणा करवाई कि, जिसे भी मेरे साथ आना हो वह आ सकता है, उनकी संपूर्ण सुविधा का ध्यान, धन सार्थवाह की ओर से रखा जाएगा। उसमें चरक आदि विविध मतावलंबिओं को भी आमंत्रण दिया गया था। यथा- "चरए वा चीरिए वा चम्मखंडिए वा भिच्छुंडे…" टीकाकार अभयदेवसूरि की व्याख्यानुसार अर्थ इस प्रकार है – घाटिभिक्षाचरः (चरक मत वाले), मार्ग में पड़े वस्त्र को लेकर धारण करने वाले या चीथड़ों को वस्त्रोपकरण के रूप में धारण करने वाले चीरिकों, चमड़ को धारण करने वाले तथा चर्मोपकरण वाले चर्मखण्डिकों, "भिक्षाण्डो–भिक्षाभोजी सुगतशासनस्थ इत्यन्ये" भिक्षाभोजी तथा सुगतशासनस्थ…। यहाँ भिच्छुंडे, भिक्षाण्ड के अर्थ में टीकाकार ने भिक्षाभोजी अर्थ किया वहाँ तक तो ठीक है, लेकिन अन्य अर्थ के रूप में बौद्धमत वाचक ‘सुगत’ शब्द का भी प्रयोग टीकाकार ने किया है। मूलपाठ में तो मात्र भिक्षाभोजी भिच्छुंडे शब्द का ही प्रयोग है। मूल में धनसार्थवाह की दीक्षा और स्वर्गगमन भी दर्शा दिया गया है। यह कथा महावीर स्वामी के मुख से कही गई है। इसका अर्थ यह होता है कि, यह प्रसंग महावीर स्वामी के जीवनकाल में या उससे पूर्व में घटित हुआ होना चाहिए। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि, ज्ञाताधर्मकथांग के मूलपाठ में भी कहीं बौद्धमतदर्शक शब्द प्रयोग नहीं हुआ है।
श्रुतस्कंध-१,आश्रवद्वारमृषावाद अध्ययन-२, सूत्र-३ में एक पाठांश है- "पंच य खंधे भणंति केई" इसका टीकाकार अभयदेवसूरि ने इसका अर्थ प्रकार किया है- "पंच च स्कन्धानुपवेदनाविज्ञानसंज्ञासंस्काराख्यान् भणंति केचिदिति-बौद्धाः…"अर्थात कोई बौद्ध रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा, संस्कार नामक पंचस्कंधों को कहते हैं।
यहाँ पर भी मूल आगम के पाठ में कहीं भी बौद्ध का उल्लेख नहीं है, लेकिन टीकाकार ने 'केई' कोई शब्द की स्पष्टता करते हुए बौद्ध मत का नाम निर्देश कर दिया है।
यहाँ बौद्धमत के कुछ उल्लेखों की संभावना लगने पर हमनें आचारांगसूत्र, सूत्रकृतांगसूत्र, स्थानांगसूत्र, भगवतीसूत्र, ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र एवं प्रश्नव्याकरणांगसूत्र को देखा और उनमें किस प्रकार क्या बातें हैं, उसके हमनें तर्कसंगत विचार प्रस्तुत किए हैं। इन छः अंगसूत्रों में बुद्धमत का उल्लेख मूल आगमों मे तो नहीं मिला, लेकिन आगम में आये हुए कुछ एक मत जिन्हें बुद्ध ने बाद में अपना लिया था। व्याख्याकारों ने उन मतों को बौद्धमत के रूप में कह दिया है। बाकी के अंगसूत्रों को भी हमनें देख लिया है। उनमें भी कहीं भी बौद्धमत का उल्लेख नहीं है। तभी तो सागरमलजी जैन जैसे प्रसिद्ध विद्वान ने (सागर जैन विद्याभारती भा.- १ के “महावीर की निर्वाणतिथि पर पुनर्विचार” प्रकरण, पृ. २५६ में) लिखा है कि, “जैन आगम साहित्य बुद्ध के जीवन वृत्तान्त के सम्बन्ध में प्रायः मौन है ”।
समग्रतया अवलोकन करने पर यह कहा जा सकता है कि, उपरोक्त अंगसूत्रों में उल्लिखित पंचस्कंधवाद, चतुर्धातुवाद(जिसे क्षणिकवाद के रूप में विशेष जाना जाता है)। सुखेनसुखवाद तथा मतिकल्पित मान्यतावाद आदि मत पूर्व से चले आ रहे थे और बाद में गौतमबुद्ध को पसंद आ जाने पर उन्होंने उन मतों को अपने मत के रूप में स्वीकार कर लिया था। बौद्ध ग्रन्थों में बुद्ध ने समय-समय पर अन्य मतावलंबियों की जो भी बातें सही लगीं हों उन्हें अपनाने के अनेक प्रसंग मिलते ही हैं, इसका पूर्ण विवरण मुनि नगराज जी आदि के अन्य ग्रंथों से जान लेना चाहिए। विविध समय में विविध मान्यता वाले मत होते ही हैं, यह जरूरी नहीं की वह सारे किसी खास एक दर्शन की ही बात हो। भिन्न-भिन्न मान्यताएँ दुनिया में हमेंशा से चली आ रही हैं और चेतना की अपनी-अपनी आध्यात्मिक भूमिका के अनुसार जिसे जो मान्यता पसंद आ जाए उसे ऐसे लोग अपनाते जाते हैं।
चूर्णीकार एवं टीकाकार के समय में इन मान्यताओं का समावेश स्वयं के अंदर कर लेने वाले बौद्धमत की विद्यमानता प्रभावशाली रूप से प्रस्थापित हो गई थी एवं वे मत अपना स्वतंत्र अस्तित्व खो चुके थे। कालक्रम में यह परिवर्तन किसी की स्मृति में नहीं रहा होने से परवर्ती व्याख्याकारों ने इन सभी प्राचीन स्वतंत्र मतों को भी बाद में अस्तित्व में आए अर्वाचीन ऐसे बौद्ध मत के रूप में, शाक्य आदि शब्दों का सीधे प्रयोग करते हुए कथन कर दिया है। उस समय उनके सामने यह मुद्दे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से ना होकर दार्शनिक आदि परिप्रेक्ष्य से थे। अतः ऐसा होना सहज संभव है। जब परवर्ती काल में दार्शनिक चर्चा एवं वाद-विवाद का युग अपनी पराकाष्ठा पर था, सवाल अपने – अपने अस्तित्व के टिकने या न टिकने का हो रहा था, तब आवश्यकता उपस्थित होने की वजह से इस तरह के विशेष अर्थघटन मात्र यहीं पर नहीं, बल्कि जैन शास्त्रों में जगह-जगह हुए हैं। यथा चैत्य वंदनसूत्र की ललितविस्तरा टीका एवं पंचसूत्र के पांचवें सूत्र की व्याख्या आदि।
जैसे कि, वर्तमान समय में कोई विद्वान किसी आगमग्रन्थ पर टीका की रचना करे और व्याख्या करते-करते ऐसे ही किसी मुद्दे पर पहुँच जाए, वहाँ वाचक की सुगमता हेतु उदाहरण के तौर पर स्वामीनारायण या ऐसे ही किसी नूतन मत की बात का उल्लेख कर दे, इसका अर्थ यह नहीं कि महावीर स्वामी के समय में स्वामीनारायण पंथ था। इस पंथ का उद्गम तो आज से दो सौ, ढाई सौ वर्ष पूर्व(लगभग वि.सं. १८३७) में ही हुआ है। इससे मात्र व्याख्याकार के समय की परिस्थिति का ही बोध होता है। इनसे सदिओं पूर्व रचित मूलग्रन्थ के समय की स्थिति का नहीं। ऐसी बातें तत्समय की विद्यमान परिस्थिति की बोधक मानी जा सकती हैं। ऐसी बातों को उदाहरण देने तक ही सीमित समझना चाहिए। परवर्ती ग्रंथकारों, टीकाकारों की बातों का विश्लेषण करने की विवेकबुद्धि ऐसे में सही अर्थ निकाल सकती है।
महावीर एवं बुद्ध की समकालीनता को सिद्ध करने के लिए महावीरकालीन जैन अंगसूत्रों में बौद्धमत का उल्लेख मिलना आवश्यक है, जो यहाँ नज़र नहीं आ रहा है।अकेले बौद्धग्रन्थों में, वह भी महावीर स्वामी के सिद्धांत, व्यक्तित्व, उपदेशों आदि से सर्वथा विपरित निगण्ठ नातपुत्त के नाम से कहीं से भी सुनी सुनाई बातों का आधार लेकर किसी अन्य मानसिकता की निपजरूप किये गए निवेदनों, मनघडंत कथा प्रसंगों के आधार पर महावीर स्वामी एवं बुद्ध की समकालीनता को यदि कोई सिद्ध करने का प्रयास करता है, तो वह वास्तविकता से विहीन है। (निगण्ठ नातपुत्त के संदर्भ में बौद्धग्रन्थों में किस भाषा एवं किस आशय से क्या – क्या लिखा गया है, उसे जानने के लिए पढ़ें हमारा दूसरा लेख- “ज्ञातपुत्र महावीर और निगण्ठ नातपुत्त के संदर्भ में बौद्धग्रन्थों की समीक्षा”)
महावीरकालीन अंग आगमसूत्रों में बुद्ध या बौद्धधर्म के बारे में किसी भी प्रकार का उल्लेख न होने के आधार पर कहा जा सकता है कि, बुद्ध महावीर स्वामी के समकालीन होने की बात को कहीं पर भी समर्थन नहीं मिल रहा है। साथ ही जैन आगमों में बौद्धों के कहे जाने वाले जिन मतों का उल्लेख हुआ है, वह सारे मत भी महावीर स्वामी के समय में किसी धर्म विशेष के अंश न होकर अपने आपमें स्वतंत्ररूप से प्रस्थापित एवं प्रचिलत थे। इसी तरह महावीर स्वामी निर्वाण के बाद वर्ष १७० तक रहे भद्रबाहुस्वामी ने अपनी निर्युक्ति में भी कहीं बौद्धमत का उल्लेख नहीं किया है। मतलब कि उनके समय तक भी उपरोक्त मतों को बौद्ध धर्म के मतों के रूप में संज्ञान दिया जा सके वैसा महत्त्व बौद्ध धर्म का नहीं किया हुआ था।
इधर वर्ष १९८८ में जर्मनी में हुई बुद्धनिर्वाण के समय का निर्धारण करने वाली वैश्विक बौद्ध कॉन्फ्रेंस में ७० शोध पत्रों एवं ६५० संदर्भों के आधार पर महामंथन करते हुए बुद्ध का निर्वाण ईस्वी पूर्व ४०० से ४२३ के बीच में हुआ होने का निर्धारित हुआ। अर्थात् महावीर स्वामी के समकालीन या समीपवर्ती काल में न होकर महावीर स्वामी निर्वाण से करीब सवा सौ बरसों के बाद का निर्धारित हुआ।
हेंस बेकर्ट का यह भी सुझाव है कि “There cannot be much doubt that the Buddha’s Nirvan should be probably around 350 B.C.” वीर निर्वाण से १७० वर्ष में हुए भद्रबाहुस्वामी की निर्युक्ति में बौद्धमत का उल्लेख न मिलना यह बात भी हेंस बेकर्ट के मत की पुष्टि करता है। भद्रबाहु स्वामी का जन्म भी ईस्वी पूर्व ४३३ में हुआ था। तदनुसार भद्रबाहु स्वामी बुद्ध के निर्वाण के समय १० से ३३ वर्ष की उम्र के रहे हो सकते हैं।
ऐसे में यह कहा जा सकता है कि, भद्रबाहु स्वामी के समय बुद्ध मत का अभी कुछ समय पूर्व ही प्रारंभ हुआ था। उस समय उपरोक्त सारे मत भी अपने स्वतंत्र अस्तित्व के धारक थे एवं बुद्ध धर्म का प्रभाव भी प्रारंभिक अवस्था में ही था। अतः भद्रबाहुस्वामी अपने निर्युक्ति ग्रंथों में उपरोक्त मतों को बुद्ध संमत मत के रूप में उन्हें स्थान दें यह संभव नहीं था। उपरोक्त सारे तथ्यों को ध्यान में रखते हुए इतना तो स्पष्ट होता है कि, महावीर स्वामी और बुद्ध के समकालीन होने की जगह बुद्ध और भद्रबाहु स्वामी समकालीन थे ऐसी संभावना लगती है।
ऐसे में परवर्ती चूर्णी एवं टीकाकारों ने उपरोक्त मतों को बौद्ध मत के अंतर्गत गिनते हुए जो व्याख्या की है उसकी वजह हमनें उपरोक्त जो बताई है वह योग्य प्रतीत होती है।
इन सारी बातों को ध्यान में रखते हुए हमारा मंतव्य है कि, बुद्ध और महावीर स्वामी समकालीन नहीं थे एवं बुद्ध का निर्वाण महावीर निर्वाण के १०४ से १२७ वर्षों के बाद हुए होने की बात हमें सही लगती है।
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संदर्भसूची-
Editorial Summery of Paper No. 12
जैनअंगसूत्रों के आधार पर बुद्ध एवं महावीर की समकालीनता की समीक्षा
Buddha and Mahavir Contemporaneity Analysis Based on Jain Ang Agams
It is widely acknowledged that Jain Agamic scriptures do not mention Buddha, Buddhism, or any other terms associated with Buddha or Buddhism. The author of this paper sought to verify this information firsthand.
Providing a brief background on Svetambara Canonical Jain Scriptures is necessary. There is a total of 45 Agam Granths. The first 12 are designated as Ang Agams, believed to have been compiled by the earliest and direct disciples of Mahavir. However, the 12th Ang Agam granth no longer exists. It is a tradition, supported by many prominent historians, which suggests the first 11 Ang Agams were compiled by Mahavir's disciples during his lifetime or within approximately 100 years of his nirvana. The remaining Agams were composed several hundred years after Mahavir's nirvana.
The initial collection of major explanatory scriptures, known as Niryuktis, were likely composed within a span of 150 to 200 years after Mahavir's nirvana. Additional Niryuktis texts emerged many centuries later. Another set of explanatory scriptures, Churnis and Tikas, which provided further elucidation, were compiled several centuries after Mahavir's nirvana. According to ancient Indian traditions, the Agams, along with the majority of the Niryuktis, were transmitted orally from one pontiff to another.
The author of this paper meticulously examined the first 11 out of the 45 Agams and affirmed the absence of any references to Buddha, Buddhism, Shakyamuni, or anything remotely associated with Buddhism.
Afterward, the author examined the Niryuktis compiled by Bhadrabahu Swami, one of the most highly revered Jain munis respected by all Jain sects. According to the historical timeline of Jain agamic texts, it is likely that Bhadrabahu compiled several Niryuktis of the main Agams approximately 150 to 170 years after Mahavir's nirvana. Once again, no statements regarding Buddha, Buddhism, or Shakyamuni, or anything remotely connected with Buddhism, were found. Following the examination of the Niryuktis, the author proceeded to scrutinize the Churnis and Tikas of both the Niryuktis and the original Ang Agams. In this phase, clear statements referring to Buddhism and Shakyamuni were discovered. It is noteworthy that Churnis and Tikas were compiled several centuries after Mahavir's nirvana.
Drawing from his comprehensive analysis of the Ang Agams, Niryuktis, Churnis, and Tikas, the author has concluded that the contemporaneity of Buddha and Mahavir cannot be confirmed based on Jain canonical scriptures.
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