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विविध संवतों का प्रमाणसिद्ध अंतर एवं वीर निर्वाण की निर्विवाद कालगणना

– गजेन्द्र शाह

आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा

Abstract

वीर निर्वाण के सही समय को सिद्ध करने के लिए एकाधिक प्रमाणों एवं युक्तिओं में से एक प्रमाण विविध संवतों के अंतर का भी है। इस लेख में उसे ही प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। वीर निर्वाण से शक संवत का अंतर, वीर निर्वाण से विक्रम संवत का अंतर और शक संवत से विक्रम संवत के अंतर को संस्कृत, प्राकृत के प्राचीन जैन शास्त्र ग्रंथों, प्रतिमा लेखों, रचना प्रशस्तिओं, प्रतिलेखन पुष्पिकाओं आदि प्राचीन प्रमाणों, साक्ष्यों के आधार पर दर्शाने का यहाँ प्रयास किया गया है। यहाँ प्रस्तुत प्रमाण विशेषकर आज (वि.सं.२०८०) से ५०० वर्ष पूर्व से लेकर १४०० वर्ष प्राचीन तक के लिए गए हैं। उन प्रमाणों को अग्रिम स्थान पर प्रधानता से दर्शाया है और साथ में कुछ बाद के प्रमाण भी दिए हैं।  यहाँ दो संवतों के बीच के अंतर को सिद्ध करने वाले कुछ ऐसे साक्ष्य भी प्रस्तुत किए हैं, जिनमें दो संवत्सरों का एक साथ उल्लेख किया गया हो। एक ही प्रसंग के लिए विभिन्न ग्रंथों में विभिन्न संवत दर्शाए गए हों, ऐसे प्रमाण भी दो संवतों के अंतर को सिद्ध करने हेतु एक पुष्ट आधार हैं, अतः ऐसे भी कुछ प्रमाण यहाँ प्रस्तुत किए गए हैं। हमें विश्वास है कि, इसके माध्यम से विविध संवतों के योग्य अंतर के निर्णय तथा वीर निर्वाण के योग्य समय का निर्णय करने के लिए विद्वानों को अपेक्षित प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध होगी और वर्तमान में चल रहे मत-मतांतरों और भ्रमणाओं का निर्मूलन करने में यह लेख विशेष उपयोगी सिद्ध होगा। 

वीर निर्वाण और शक संवत का अंतर दर्शाने वाले शास्त्रपाठ-

वीर निर्वाण और विक्रम संवत के अंतर को लेकर मत-मतांतर हो सकते हैं। कई विद्वानों ने दोनों संवतों के योग्य अंतर को प्रमाण देकर सिद्ध भी किया है, फिर भी एक बार विक्रम संवत को ध्यान में न लिया जाए तो भी जैन कालगणना में कोई असर नहीं पड़ सकता है, क्योंकि हमारी प्राचीन गणना वीर निर्वाण से आरंभ हो कर ६०५ वर्ष और ५ माह के अंतर में शक संवत्सर से आ मिलती है और तब से दोनों संवत्सर अब तक निर्विवाद ६०५ वर्ष के अंतर पर चले आ रहे हैं। वीर निर्वाण से लेकर शक संवत के प्रारंभ तक के ६०५ वर्षों की गिनती के साक्ष्य एकाधिक प्राचीन ग्रंथों में उपलब्ध होते हैं। उनमें से कुछ ग्रंथों के प्रमाण निम्न दर्शित हैं-
  • 一) तित्थोगालीपइण्णय (कर्तास्थविर भगवंत, रचना समयवि. सं. ४थीं सदी से पूर्व)

(इस आगम का उल्लेख वि. सं. ४थीं से ५वीं सदी में रचित व्यवहारभाष्य में किया गया है, अतः यह आगम उससे पूर्व का है। इस आगम की प्राचीनतम उपलब्ध हस्तप्रत, पाटण भंडार में वि. सं. १४५२ की है) जं रयणीं सिद्धिगओ, अरहा तित्थंकरो महावीरो। तं रयणीमवंतीए, अभिसित्तो पालओ राया ॥६२०॥ पालगरण्णो सट्ठी, पुण पण्णसयं वियाणि णंदाणम्। मुरियाणं सट्ठिसयं, पणतीसा पुसमित्ताणम्(त्तस्स) ॥६२१॥ बलमित्त-भाणुमित्ता, सट्ठी चत्ता य होन्ति नहसेणे। गद्दभ सयमेगं पुण, पडिवन्नो तो सगो राया ॥६२२॥ पंच य मासा पंच य वासा, छच्चे व होंति वाससया। परिनिव्वुअस्स अरिहतो, तो उप्पन्नो सगो राया ॥ ६२३ ॥ अर्थ- जिस रात्रि में अरिहंत तीर्थंकर महावीर मोक्ष में गए, उस रात्रि में अवन्ती में पालक राजा का राज्याभिषेक हुआ। पालक राजा के शासन के ६० वर्ष, नन्दों के १५० वर्ष, मौर्यों के १६०,पुष्यमित्र के ३५, बलमित्र-भानुमित्र के ६०, नभसेन के ४०, गर्दभिल्लों के १०० वर्ष क्रमश: राज्य चलने के पश्चात शक राजा हुआ। अरिहंत महावीर के निर्वाण के ५ माह, ५ वर्ष और ६ शतक (६०५ वर्ष और ५ माह) व्यतीत हो जाने पर शक राजा हुआ। (६०+१५०+१६०+३५+६०+४०+१००=६०५)
  • 二) तिलोयपण्णत्ति– (कर्ता- यति वृषभाचार्य, रचना-वि. सं. ६ठी सदी)

णिव्वाणे वीरजिणे छव्वाससदेसु पंचवरिसेसु। पणमासेसु गदेसु संजादो सगणिओ अहवा॥ अर्थ – वीरजिन के निर्वाण के छह सौ पाँच (६०५) वर्ष पाँच माह बीत जाने पर शक राजा हुआ।
  • 三) धवला टीका- (कर्ता- वीरसेनाचार्यजी, रचना समय- वि. सं. ८वीं सदी)

पंच य मासा पंच य वासा, छच्चेव होंति वाससया। सगकालेण य सहिया, थावेयव्वो तदो रासी॥ अर्थ – छह सौ पाँच वर्ष पाँच माह के शक काल के सहित राशि स्थापित करनी चाहिए। इस प्रकार श्रीवीरसेनाचार्य प्रणीत धवलसिद्धांतभाष्य, मेघनंदिकृत श्रावकाचार आदि  और भी कई प्रमाण उपलब्ध हैं।
  • 四) हरिवंशपुराण– (कर्ता- जिनसेनाचार्य, दिगं. रचना- शक सं. ७०५, वि. सं. ८४०)

वर्षाणां षट्शतीं त्यक्त्वा पंचाग्रां मासपंचकम्। मुक्तिं गते महावीरे शकराजस्ततोऽभवत् ॥ अर्थ – महावीर स्वामी मुक्ति के ६०५ वर्ष ५ माह होने पर शक राजा हुआ।
  • 五) त्रिलोकसार– (कर्तासिद्धान्तचक्रवर्त नेमिचन्द्राचार्य, दिगं. समय-वि. सं. ११वीं सदी पूर्वार्ध)

पणछस्स य वस्सं पणमासजुदंगमियवीरणिव्वुइदो सगराजो….॥८५०॥ अर्थ – वीर निर्वाण से ६०५ वर्ष ५ माह बीतने पर शक राजा हुआ।
  • 六) महावीर चरियं– (कर्तानेमिचंद्रसूरि, रचनावि.सं.११४१)-

छहिं वासाणसएहिं, पंचहिं वासेहिं पंचमासेहिं। मम निव्वाणगयस्स उ, उप्पज्जिस्सइ सगो राया ॥२१७०॥ अर्थ- मेरे (महावीर के) निर्वाण होने के ६०५ वर्ष और ५ माह के बाद शक राजा उत्पन्न होगा।
  • 七) विचार श्रेणी – (कर्ता- मेरुतुंगसूरि,वि. सं. १४वीं सदी)

श्रीवीरनिर्वृत्तेः षड्भिः पंचोत्तरैः शतैः। शाकसंवत्सरस्यैषा प्रवृत्तिर्भरतेऽभवत्॥ अर्थ- श्रीवीर निर्वाण के ६०५ वर्ष बाद शाक संवत्सर की इस प्रकार प्रवृत्ति भरत क्षेत्र में हुई। (यह गाथा मेरुतुंगसूरि के द्वारा विचार श्रेणी में किसी ग्रंथ में से उद्धृत की हुई है, जो कम से कम इनसे १०० वर्ष प्राचीन तो होगी ही)।   उपरोक्त ७ प्रमाणों से जैनधर्म के प्रधान श्वेताम्बर एवं दिगंबर दोनों के ही मत, महावीर और शक संवत का ६०५ वर्ष ५ माह का अंतर निर्विवादरूप से मानते आ रहे हैं। अब तक वीर संवत और शक संवत निर्विवादरूप से उसी अंतर पर चले आ रहे हैं। वर्तमान में वीर संवत २५५० हैं और शक संवत १९४५ चल रहा है। वीर निर्वाण काल को जानने के लिए यह कालगणना पर्याप्त है। फिर भी अब हम आगे वीर एवं विक्रम संवत के अंतर को भी सह प्रमाण सिद्ध करते हैं।
  • (一) वीर निर्वाण और विक्रम संवत का अंतर बताने वाले शास्त्रपाठ-

  • 一) पंचवस्तुक प्रकरण

(कर्ता- हरिभद्रसूरि, कर्ता का स्वर्गवास प्रतिप्रभसूरि रचित वि.सं. १३वीं सदी के ग्रन्थ दूषमगण्डिका तथा मेरुतुंगसूरि रचित वि.सं. १४वीं सदी के ग्रन्थ विचार श्रेणी अनुसार वि.सं. ५८५मतांतर वि.सं. ८वीं सदी) चउसय सत्तरि वरिसे (४७०) वीराओ विक्कमो जाओ। अर्थ – वीर से ४७० वर्ष में विक्रम हुए।
  • 八) जंबूस्वामी चरित- (कर्ता- महाकवि वीर, रचना- वि.सं. १०७६)

वरिसाण सय चउक्कं, सत्तरि जुत्तं जिणेंद वीरस्स। णिव्वाणा उववण्णो, विक्कमकालस्स उप्पत्ती॥ अर्थ – वीर निर्वाण से ४७० वर्ष के बाद विक्रमकाल की उत्पत्ति हुई।
  • 九) दीपोत्सव कल्प- (कर्ता- हेमचन्द्राचार्य,रचना- वि. सं. १३वीं सदी)

(कर्ता- कृति में कर्ता का तथा रचना वर्ष का कोई उल्लेख नहीं है, लेकिन कुछ हस्तप्रतों में हेमचन्द्राचार्य कृत होने के उल्लेख प्राप्त होते हैं, यथा- कोबा ज्ञानमंदिर स्थित वि. सं. १६वी सदी की हस्तप्रत क्र. ५९२२ में ‘श्रीहेमाचार्यकृतः’ ऐसा स्पष्ट उल्लेख है। इन उल्लेखों के आधार पर तथा अत्यधिक श्लोक हेमचंन्द्राचार्य विरचित त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र के पर्व- १० के सर्ग- १३ में मिल रहे होने से इसके कर्ता हेमचंद्राचार्य माने गए हैं। त्रिषष्टि का रचना वर्ष वि.सं. १२२० है। इस दीपावली कल्प की सबसे प्राचीन ह. प्र. वि. सं. १५५२ की कोबा ज्ञानमंदिर में उपलब्ध है। मूलपाठ हेतु देखें भद्रंकर प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक- दीपालिकाकल्पसंग्रह, पृ.२१) सप्तत्या सहिते वर्ष चतुःशतमिति क्रमात्। विक्रमादित्य इत्याख्यातो राजा भविष्यति ॥१०५॥ …….स्वस्य वत्सरं वर्तयिष्यति॥१०६॥ अर्थ – (ग्रंथ में ऊपर के श्लोंकों से अधिकार चल रहा होने से- मेरे अर्थात् वीर निर्वाण से) सत्तर के साथ चार सौ (अर्थात् ४७०) वर्ष के बाद विक्रमादित्य इस नाम का राजा होगा। …….वह स्वयं के संवत्सर को चलाएगा।
  • 十) दूषमगण्डिका- (कर्ता- प्रतिप्रभसूरि, समय- वि.सं. १३वीं सदी, उपलब्ध प्राचीनतम प्रत पाटण ज्ञानभंडार में वि. सं. १२८४)

चउसयसत्तरिवासे तत्वं(व्वं)सं छेइऊण पुण काले। जाओ विक्कमराया पुहवी जेणूरणी विहिया ॥३५॥ अर्थ – (महावीर निर्वाण से) चार सौ सत्तर (४७०) वर्ष में उसके (शक के) वंश का उच्छेद करके विक्रम राजा हुआ, जिसने पृथ्वी को ऋण रहित किया।
  • 十一) कालसप्ततिका– (कर्ताधर्मघोषसूरि, समयगुर्वावली अनुसार वि. सं. १३२७ में आचार्य पद प्राप्ति एवं वि.सं. १३५७ में स्व. इस कृति की प्राचीनतम हस्तप्रत वि. सं. १३६९ की पाटण भंडार में प्राप्त होती है।)

सुन्नमुणिवेअजुत्ता, विक्कमकालाओ जिणकालो॥४२॥ अर्थ – विक्रम काल से ४७० वर्ष पूर्व जिनेश्वर (महावीर) का काल है। अर्थात् वि.सं पूर्व ४७० वर्ष पर वीर संवत् आता है।
  • 十二) दीपालिकापर्वकल्प- (कर्ता- विनयचन्द्रसूरि, रचना समय- वि. सं. १३४५)

(भद्रंकर प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक- दीपालिकाकल्पसंग्रह पृ.५९) सप्तत्यग्रचतुःशत्या वर्षाणां विक्रमो नृपः। (श्लोक-१६५) अर्थ – (पूर्व से चले आ रहे अधिकार के अनुसार- मेरे निर्वाण के बाद) चार सौ के ऊपर सत्तर  (अर्थात् ४७०) वर्ष बाद विक्रम राजा होगा।
  • 十三) विचारश्रेणी – (कर्ता- मेरुतुंगसूरि, वि. सं. १४वीं सदी)

विक्कमरज्जारंभा परउ सिरिवीरनिव्वुई भणिया। सुन्नमुणिवेअजुत्तो विक्कमकाल उ जिणकालो ॥ विक्रमकालाज्जिनस्य वीरस्य कालो जिनकालः शून्यमुनिवेदयुक्तः चत्वारिशतानि सप्तत्यधिकवर्षाणि श्रीमहावीरविक्रमादित्ययोरंतरमित्यर्थः।……..श्रीवीरनिर्वाण-दिनादनु ४७० वर्षे विक्रमादित्यस्य राज्यारम्भ-दिनमिति। अर्थ –विक्रम के राज्यारंभ से पूर्व शून्यमुनिवेद अर्थात् ४७० वर्ष पर श्रीवीर की निर्वृत्ति (निर्वाण) कही गई है। विक्रमकाल और जिनकाल का अंतर चार सौ सत्तर वर्ष का है। श्रीवीरनिर्वाण दिन के बाद ४७० वर्ष पर विक्रमादित्य का राज्यारम्भ दिन है।  इसके अलावा विचार श्रेणी में और भी एक जगह उल्लेख है-  गर्दभिल्लस्यैव पुत्रो विक्रमादित्यः शकमुच्छेद्य तत्रैवोपविष्टः। तेन श्रीवीरमोक्षात् ४७० वर्षैः संवत्सरोऽङ्कितः। अर्थ – गर्दभिल्ल का ही पुत्र विक्रमादित्य शक का उच्छेद करके उसी जगह पर बैठा। उसने श्रीवीर के मोक्ष के बाद ४७० वर्ष पर संवत्सर अंकित किया।
  • 十四) विविधतीर्थकल्पे अपापाबृहद्कल्प- (अपर नामदीपोत्सवकल्प, कर्ता-जिनप्रभसूरि, रचना- वि. सं. १३८७, भद्रंकर प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक- दीपालिकाकल्पसंग्रह, पृ.७७)

महमुक्ख गमणाओ पालय-नंद-चंदगुत्ताइराईसु वोलीणेसु चउसय सत्तरेहिं विक्कमाइच्चो राया होहि……नियं संवच्छरं पवत्तेहि। अर्थ – महावीर के मोक्षगमन के बाद पालक-नंद-चंद्रगुप्तादि राजाओं के हो जाने के बाद ४७० वर्ष होने पर विक्रमादित्य राजा होगा…..अपने संवत्सर का प्रवर्तन करेगा।
  • 十五) प्रबंधकोश-(कर्ता- राजशेखरसूरि,रचना समय- वि.सं. १४०५)

(हेमचंद्राचार्य जैन सभा पाटण द्वारा प्रकाशित पुस्तक चतुर्विंशतिप्रबंध पृ. ८२अ. शालिवाहन प्रबंधे) श्रीवीरे शिवं गते ४७० विक्रमार्को राजाऽभवत्। अर्थ – श्रीवीर मोक्ष में जाने के बाद ४७० वर्ष पर विक्रम राजा होगा।
  • 十六) दीपालिकाकल्प– (कर्ता- जिनसुंदरसूरि,रचना समय- वि.सं. १४८३)

(भद्रंकर प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक- दीपालिकाकल्पसंग्रह, पृ.९६) मोक्षतो मम सप्तत्या युते वर्षचतुश्शते ४७०। व्यतीते विक्रमादित्य उज्जयिन्यां भविष्यति॥११५॥ ……….कृत्वा संवत्सरं स्वस्य वर्तयिष्यति भूतले॥११९॥ अर्थ – मेरे मोक्ष के बाद सत्तर युक्त चार सौ (४७०) वर्ष बीतने पर उज्जयिनी में विक्रमादित्य होगा…….अपना संवत्सर करके भूतल में चलाएगा।
  • 十七)  दीपमालिकाव्याख्यान- (कर्ता- उमेदचन्द्रजी पाठक, रचना समय- वि. सं. १८९६)

(भद्रंकर प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक- दीपालिकाकल्पसंग्रह, पृ.१५५) पूनर्मन्निर्वाणात् सप्तत्यधिकचतुःशतवर्षे (४७०) उज्जयिन्यां श्रीविक्रमादित्यो राजा भविष्यति….स्वनाम्ना च संवत्सरप्रवृत्तिं करिष्यति। अर्थ – वीर निर्वाण से ७० अधिक ऐसे ४०० वर्ष अर्थात् ४७० वर्ष होने पर उज्जयिनी में श्री विक्रमादित्य राजा होगा….वह अपने नाम से संवत्सर प्रवर्तमान करेगा। इस प्रकार वीर निर्वाण और विक्रम के अंतरदर्शक अन्य भी कई साक्ष्य हैं, जिससे वीर निर्वाण विक्रम के ४७० वर्ष पर हुआ यह निश्चित हो जाता है।  दोनों संवतों का उल्लेख एक ही किसी प्राचीन दस्तावेजी ग्रंथादि में हो तो और भी इस अंतर की विशेष पुष्टि हो जाती है। ऐसे प्रमाण भी हमारे पास प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं, उनमें से कुछ यहाँ प्रकाशित किए जाते हैं-
  • (二) वीर-विक्रम दोनों संवतों के एक साथ उल्लेख वाले प्रमाण-

  • 一) दूषमगण्डिका- (कर्ता- प्रतिप्रभसूरि, समय-वि. सं. १३वीं सदी, उपलब्ध प्राचीनतम प्रत पाटण ज्ञानभंडार में वि.सं. १२८४)

पणपण्णुवाससमहिवाससहस्से जिणाओ वीराओ। हरिभद्दसूरिसूरो अत्थमिओ दिसउ सिवसुक्खं॥४४॥ अर्थ – वीरजिन से एक हजार पचपन (१०५५) वर्ष में अस्त (स्वर्गस्थ) हुए हरिभद्रसूरिरूपी सूर्य शिवसुख देने वाले हों। अब इसी प्रसंग को ग्रन्थकार विक्रम संवत में दर्शा रहे हैं, यथा- तहय पंचसए पणसीए, विक्कमकालाओ झत्ति अत्थमिओ। हरिभद्दसूरिसूरो, तिव्व(धम्म)रओ सिवसुक्खं॥४५॥ अर्थ – तथा विक्रमकाल से पँच सौ पीच्याशी (५८५) वर्ष पर शीघ्र अस्त (स्वर्गस्थ) धर्मरत हरिभद्रसूरिसूर्य शिवसुख के देने वाले हो। यहाँ हरिभद्रसूरि के स्वर्गगमन को पहले वीर संवत में तथा बाद में विक्रम संवत में दर्शाया है। वीर सं. १०५५ में से ५८५ कम करने पर उत्तर ४७० आता है। यह अंतर दोनों संवत्सरों का है।
  • 十八) विचारश्रेणी- (कर्ता- मेरुतुंगसूरि, वि. सं. १४वीं सदी)

श्रीवीरमोक्षात् १६३९ विक्रमात् ११६९ वर्षैः श्रीविधिपक्षमुख्याभिधानं श्रीमदंचलगच्छं श्री आर्यरक्षितसूरयः स्थापयामासः। अर्थ – श्रीवीर के मोक्षगमन के बाद १६३९ और विक्रम से ११६९ वर्ष में मुख्यनाम श्रीविधिपक्ष (दूसरा नाम) श्रीमत् अंचलगच्छ की श्री आर्यरक्षितसूरि द्वारा स्थापना की गई। यहाँ दर्शाए गए दोनों संवत्सरों का अंतर ४७० स्पष्ट नजर आता है।
  • 十九) विचारश्रेणी (कर्ता- मेरुतुंगसूरि, वि. सं. १४वीं सदी)

श्रीवीरमोक्षात् दशभिः शतैः पञ्चपञ्चाशदधिकैः (१०५५) श्रीहरिभद्रसूरेः स्वर्गः। उक्तं च- पंचसए पणसीए विक्कमकालाओ झत्ति अत्थमिओ। हरिभद्दसूरिसूरो भवियाणं दिसउ कल्लाणं॥ अर्थ – श्रीवीर के मोक्ष के बाद १०५५ वर्ष में श्रीहरिभद्रसूरि का स्वर्गवास हुआ। कहा है कि- विक्रम के ५८५ वर्ष में हरिभद्रसूरि सूर्य का अस्त हुआ (स्वर्गस्थ हुए), ऐसे हरिभद्रसूरि भव्यजन का कल्याण करने वाले हों।  यहाँ हरिभद्रसूरि का स्वर्गगमन दो संवतों में दर्शाया गया है। वीर संवत १०५५ और विक्रम संवत ५८५। १०५५ में से ५८५ कम करने पर वीर निर्वाण और विक्रम के बीच का अंतर ४७० स्पष्ट हो जाता है।
  • 二十) विचारश्रेणी- (कर्ता- मेरुतुंगसूरि, वि. सं. १४वीं सदी)

विक्रमात् ५१०, श्रीवीरमोक्षादनु ९८० वर्षैः र्देवर्द्धिगणिभिर्ग्रन्थानुद्धृत्य पुस्तकेषु लिखितः। अर्थ – विक्रम से ५१० और श्रीवीर मोक्षगमन के बाद ९८० वर्ष पर देवर्द्धिगणि आदि द्वारा ग्रन्थों का उद्धार करके पुस्तकों में लिखा गया। यहाँ पर भी वीर संवत ९८० में से ५१० कम करने पर दो संवतों के बीच का अंतर ४७० स्पष्ट सिद्ध हो जाता है।
  • 二十一) गुर्वावली- (कर्ता- मुनिसुंदरसूरि, रचना समय-वि.सं.१४६६)

तदादिबाणद्विपभानुवर्षे १२८५ श्रीविक्रमात्प्राप तदीयगच्छः। बृहद्गणाह्वोऽपि तपेति नाम श्रीवस्तुपालादिभिरर्च्यमानः॥९६॥ वीराच्छरेष्वश्वधरामितेऽब्दे १७५५ श्रीचन्द्रगच्छस्य ततो बभूव। तादृक्तपस्कर्मत एव तस्य गुरोस्तपानाम जगत्प्रसिद्धम्॥९७॥ अर्थ – वीर संवत १७५५ में गुरु के द्वारा किये गए उस प्रकार के तपकर्म के कारण चन्द्रगच्छ तपा नाम से जगत में प्रसिद्ध हुआ। वस्तुपालादि के लिए पूजनीय बृहद्गच्छ का नाम विक्रम संवत १२८५ से ‘तपा इस प्रकार हुआ। आज वि. सं. २०८० के ६१४ वर्ष पूर्व रची गई उपरोक्त कृति में दोनों संवत साथ में दर्शाए गए हैं और दोनों के बीच का अंतर ४७० स्पष्ट नजर आता है।
  • 二十二) तपागच्छ पट्टावली– (कर्ताधर्मसागरजी, रचना समय-वि. सं. १६४८)

श्रीवीरसूरिः स च श्रीवीरात् सप्ततिसप्तशत ७७० वर्षे, विक्रमतः त्रिशती ३०० वर्षे नागपुरे श्रीनमिप्रतिष्ठाकृत् अर्थ – श्रीवीरसूरि ने श्रीवीर से ७७० वर्ष में और विक्रम से ३०० वर्ष में नागपुर में श्री नमिजिन की प्रतिष्ठा की। यहाँ वीर संवत में से विक्रम संवत के वर्ष कम करने पर अंतर ४७० होता है। 
  • 二十三) तपागच्छ पट्टावली– (कर्ताधर्मसागरजी, रचना समयवि. सं. १६४८)

श्रीवीरात् चतुष्षठ्यधिकचतुर्दशशत १४६४ वर्षे, वि० चतुननवत्यधिकनवशत ९९४ वर्षे निजपट्टे श्रीसर्वदेवसूरिप्रभृतानष्टौ सूरीन् स्थापितवान्….वटस्याधः सूरिपदकरणात् वटगच्छ इति पंचमनाम लोकप्रसिद्धं अर्थ – श्री वीर से १४६४ वर्ष में तथा विक्रम के ९९४ वर्ष में उद्योतनसूरि के द्वारा सर्वदेवसूरि आदि ८ शिष्यों को वटवृक्ष के नीचे आचार्य पद प्रदान किया गया, जिससे इस गच्छ का पाँचवा नाम वडगच्छ लोक में प्रसिद्ध हुआ। यहाँ वीर संवत १४६४ में से ४२७ कम करने पर विक्रम संवत ९९४ होता है।
  • 二十四) तपागच्छ पट्टावली– (कर्ताधर्मसागरजी, रचना समय-वि. सं. १६४८)

श्रीवीरात् द्विसप्तत्यधिकद्वादशशत १२७२वर्षे, वि० द्वयुत्तराष्टशतवर्षे ८०२ अणहिल्लपुरपत्तनस्थापना वनराजेन कृता। अर्थ – श्रीवीर से १२७२ वर्ष और विक्रम संवत के ८०२ वर्ष में वनराज ने अणहिल्लपुरपत्तन की स्थापना की। यहाँ वीर संवत १२७२ में से विक्रम संवत के ८०२ कम करने पर दो संवतों के बीच का अंतर ४७० वर्ष का आता है।
  • 二十五) तपागच्छ पट्टावली– (कर्ताधर्मसागरजी, रचना समय-वि. सं. १६४८)

श्रीरविप्रभसूरिः स च श्रीवीरात् सप्तत्यधिकैकादशशत ११७० वर्षे, वि० सप्तशत ७०० वर्षे नड्डुलपुरे श्रीनेमिनाथप्रासादप्रतिष्ठाकृत्  अर्थ – श्रीरविप्रभसूरि ने श्रीवीर से ११७० वर्ष में और विक्रम से ७०० वर्ष में नाडोलपुर में श्री नेमिनाथमंदिर की प्रतिष्ठा की। यहाँ दोनों संवतों का उल्लेख किया गया है और यहाँ पर भी दो संवतों के बीच का अंतर ४७० ही आता है। वीर और विक्रम दोनों संवतों का एक ही जगह उल्लेख हुआ हो ऐसे उपरोक्त ९ प्रमाण यहाँ हमने प्रस्तुत किए हैं। शोध करने पर और भी मिल सकते हैं। दो संवतों के अंतर को सिद्ध करने के लिए इस प्रकार का एक भी प्रमाण काफी है, वहाँ हमने नौ-नौ प्रमाण प्रस्तुत कर दिए हैं, अतः यहाँ पर वीर निर्वाण, विक्रम से ४७० वर्ष पूर्व हुआ यह निःशंक सिद्ध हो जाता है। 
  • (三) एक ही प्रसंग हेतु विभिन्न ग्रंथों में उल्लिखित विभिन्न संवतों से अंतर की पुष्टि-

  • 一) वि. सं. १४वीं सदी के मेरुतुंगसूरि द्वारा रचित विचारश्रेणी में वज्रस्वामी का काल दर्शाते हुए लिखा है कि- श्रीविक्रमात् ११४ वर्षैवज्रस्वामीअर्थात् विक्रम से ११४ वर्ष में वज्रस्वामी हुए।
वि.सं. १४६६ में मुनिसुंदरसूरि द्वारा रचित गुर्वावली में वज्रस्वामी के समय हेतु वीर निर्वाण में वर्ष दर्शाया गया है, यथा- वज्रस्वामी……स्वर्वेदन्दीषुमिते ५८४ स वर्षे यातो जिनात् (श्लोक-२३) अर्थात् वीर जिनसे ५८४ वर्ष पर वज्रस्वामी स्वर्गस्थ हुए। (वज्रस्वामी का इसी वीर संवत में उल्लेख वि. सं. १३२७ में आचार्यपद पाने वाले धर्मघोषसूरि के कालसप्ततिका ग्रन्थ में भी दिया गया है।) यहाँ वीर संवत के ५८४ वर्षो में से विक्रम के ११४ वर्ष कम करने पर दो संवतों के बीच का अंतर ४७० आता है।
  • 二) वि.सं. १३वीं सदी में प्रतिप्रभसूरि द्वारा रचित दूषमगण्डिका ग्रन्थ मेंवलभीभंग हेतु पाठ-
……………..अडसय पणयाल वलहिखओ॥४२॥ अट्ठसए पणयाले सिरिवीराओ गयंमि कालंमि। वलहीनयरसातो संजाओ मिच्छसंजणिओ॥४३॥ अर्थ – आठ सौ पेंतालीस (८४५) में वलभी क्षय। श्री वीर से आठ सौ पेंतालीस (८४५ वर्ष का) काल जाने पर म्लेच्छों के द्वारा वलभीनगर का विनाश हुआ। इसी घटना का उल्लेख वि.सं. १४वीं सदी में मेरूतुंगसूरि द्वारा रचित विचार श्रेणी ग्रन्थ में विक्रम संवत में दर्शाया गया है, यथा- पणसयरी वासाइं तिन्निसयसमन्नियाइं अक्कमिउं। विक्कमकालाओ तओ वलभीभंगो समुप्पन्नो। अर्थ – विक्रम तीन सौ के साथ पचहत्तर (३७५ वर्ष का) काल गया तब वलभीभंग समुत्पन्न हुआ। यहाँ वलभीभंग के प्रसंग को गुर्वावली में वीर संवत ८४५ में दर्शाय गया है और विचार श्रेणी में विक्रम संवत ३७५ में दर्शाय गया है। वीर के ८४५ में से विक्रम के ३७५ वर्ष कम करने पर दो संवतों का अंतर ४७० आता है। 
  • 三) वि.सं.१४६६ में रचित गुर्वावली में पाठ– चतुर्नवत्याऽन्यधिकैः शरच्छतैः श्रीविक्रमार्कान्नवभिः…. तदाऽतिष्ठिपत् सूरीन्….. अष्टौ… वटगणाभिख्यस्तदादि ९९४ त्वयम् तथा विसं१६४८ में धर्मसागरजी द्वारा रचित तपागच्छ पट्टावली में पाठ– श्रीवीरात् चतुष्षठ्यधिकचतुर्दशशत १४६४ वर्षे, वि० चतुननवत्यधिकनवशत ९९४ वर्षे निजपट्टे श्रीसर्वदेवसूरिप्रभृतानष्टौ सूरीन् स्थापितवान्…. वटस्याधः सूरिपदकरणात् वटगच्छ इति पंचमनाम लोकप्रसिद्धं
यहाँ उद्योतनसूरि के द्वारा सर्वदेवसूरि आदि ८ शिष्यों को वटवृक्ष के नीचे आचार्य पद प्रदान किया गया, जिससे इस गच्छ का पाँचवा नाम वडगच्छ लोक में प्रसिद्ध हुआ। इस घटना को गुर्वावली में विक्रम संवत ९९४ में दर्शाया गया है और धर्मसागरजी की पट्टावली में वीर संवत १४६४ में दर्शाया गया है। वि. सं. १४६४ में से ४७० कम करने पर विक्रम संवत ९९४ होता है। ज्ञात हो कि, यहाँ धर्मसागरजी की पट्टावली में विक्रम संवत भी दिया हुआ है।
  • 四) वि . सं.१४६६ में रचित गुर्वावली में पाठ– देवसूरिः १८ शरच्छते विक्रमतः सपादे १२५ कोरण्टके यो विधिना प्रतिष्ठां…… विसं१६४८ में धर्मसागरजी रचित तपागच्छ पट्टावली का पाठ– श्रीवीरात् पंचनवत्यधिकपंचशत ५९५ वर्षातिक्रमे कोरंटके……प्रतिष्ठाकृत्
यहाँ कोरंटक में देवसूरि द्वारा करवाई गई प्रतिष्ठा का वर्ष गुर्वावली में विक्रम संवत १२५ दिया गया है और तपागच्छ पट्टावली में वीर संवत ५९५ दिया हुआ है। यहाँ वीर संवत के ५९५ में से विक्रम संवत के १२५ बाद करने पर ४७० वर्ष का अंतर आता है। 
  • 五) वि. सं.१४६६ में रचित गुर्वावली में पाठ- प्रतिष्ठा कृन्नेमेर्नागपरे नृपात् त्रिभिर्वर्षशतैः ३०० किञ्चिदधिकैर्वीरसूरिराट्वि. सं. १६४८ में धर्मसागरजी रचित तपागच्छ पट्टावली का पाठ- श्रीवीरसूरिः स च श्रीवीरात् सप्ततिसप्तशत ७७० वर्षे, विक्रमतः त्रिशती ३०० वर्षे नागपुरे श्रीनमिप्रतिष्ठाकृत्
यहाँ नागपुर में वीरसूरि द्वारा नेमिजिन की प्रतिष्ठा कराए जाने का उल्लेख गुर्वावली में विक्रम संवत ३०० का दर्शाया है और तपागच्छ पट्टावली में वीर संवत ७७० का दर्शाया है। दोनों के बीच का अंतर यहाँ पर भी ४७० ही आता है। (तपाग्छ पट्टावली में नेमि की जगह नमि पाठांतर दोष हो सकता है।) ज्ञात हो कि यहाँ तपागच्छ पट्टीवली में वीर एवं विक्रम दोनों ही संवतों का उल्लेख दिया हुआ है।
  • 六) गुर्वावली का पाठ- नड्डुलाह्वपुरे प्रतिष्ठितवरश्रीनेमिचैत्यस्ततोऽप्यासीद्वर्षशतै रविप्रभगुरुः श्रीविक्रमात्सप्तभिः ७०० धर्मसागरजी कृत तपागच्छ पट्टावली का पाठ– श्रीरविप्रभसूरिः   श्रीवीरात् सप्तत्यधिकैकादशशत ११७० वर्षेवि० सप्तशत ७०० वर्षे नड्डुलपुरे श्रीनेमिनाथप्रासादप्रतिष्ठाकृत्। 
यहाँ श्रीवीरसूरि द्वारा नाडोल में नेमिनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा की गई उसका गर्वावली में समय विक्रम संवत में ७०० दर्शाया है और धर्मसागरजी की पट्टावली में वीर संवत में ११७० दर्शाया है। यहाँ पर भी दोनों संवतों के बीच का अंतर ४७० ही है। ज्ञात हो की धर्मसागरजी की पट्टावली में दोनों संवतों का उल्लेख एक साथ किया हुआ है। वीर संवत और विक्रम के अंतर को दर्शाने वाले एक ही घटना के लिए अलग अलग ग्रंथों में उल्लिखित दो संवतों तथा उपरोक्त अन्य भी कई युक्ति-प्रयुक्तिओं के आधार पर वीर और विक्रम संवत का ४७० वर्ष का अंतर सिद्ध हो जाता है। अब इस बात में हमें न कोई भ्रम है और ना ही कोई शंका। अर्थात् उपरोक्त दो संवतों के लिए इतने प्रमाण पर्याप्त हैं। 
  • (四) वीर संवत का उल्लेख कहाँ तक और विक्रम का उल्लेख कब से?

वैसे यह अलग से विशेष संशोधन का विषय है, लेकिन यहाँ संवतों के लिए उपयोग में लिए गए संदर्भों से जितना निष्कर्ष निकला है, उतना वाचकों को दर्शाने का प्रयास किया है।
  • 一) विचारश्रेणी (कर्ता- मेरुतुंगसूरि, वि. सं. १४वीं सदी)

गर्दभिल्लस्यैव पुत्रो विक्रमादित्यः शकमुच्छेद्य तत्रैवोपविष्टः। तेन श्रीवीरमोक्षात् ४७० वर्षैः संवत्सरोऽङ्कितः। तदनु संवत् ८२१ वर्षे वैशाख सुदि २ सोमे चाउडावंशोत्पन्नः श्रीवनराजः श्रीअणहिल्लपुरमस्थापयत्। अर्थ – गर्दभिल्ल का ही पुत्र विक्रमादित्य शक का उच्छेद करके उसी जगह पर बैठा। उसने श्रीवीर के मोक्ष के बाद ४७० वर्ष पर संवत्सर अंकित किया। उसके बाद संवत् ८२१ वर्ष वैशाख शुक्ला द्वितीया सोमवार के दिन चावडावंश में उत्पन्न श्रीवनराज ने श्री अणहिल्लपुर की स्थापना की। यहाँ ग्रन्थकार ने विधिवत् वीर के बाद विक्रम संवत का अंतर दर्शाया, फिर विक्रम संवत के आधार पर पाटण स्थापना के प्रसंग से प्रसंगों को दर्शाना प्रारंभ किया। यहाँ विचार श्रेणी के आधार पर यह भी उल्लेखनीय है कि विक्रम संवत ८२१ से पहले की घटनाओं को वीर संवत् में दर्शाया गया और विक्रम संवत को ८२१ से अपनाना प्रारंभ किया। विक्रम संवत का उल्लेख इससे भी काफी पहले किया हुआ इसी विचार श्रेणी में एक जगह हमें नज़र आया है, यथा- श्रीविक्रमात् ११४ वर्षैर्वज्रस्वामी….अर्थात् विक्रम से ११४ वर्ष पर वज्रस्वामी हुए। इस आधार से कहें तो विक्रम संवत को जैन कालगणना ने ११४ वर्षों से ही अपनाना प्रारंभ कर लिया था। 
  • 二十六) गुर्वावली- (कर्ता- मुनिसुंदरसूरि, समय-वि.सं.१४६६)

गुर्वावली के आधार पर जैन कालगणना में वीर संवत का उल्लेख ६२० वर्षों तक क्रमशः चला है और उसके बाद विक्रम संवत का प्रचलन हुआ है। यथा- नखर्त्तुवर्षेऽथ ६२० जिनाद्दिवं स श्रीवज्रसेनोऽधिगतः श्रियेऽस्तु वीर जिनके ६२० वर्ष बाद श्री वज्रसेन दिवंगत हुए। इसके बाद विक्रम का पहला उल्लेख देवसूरि से प्रारंभ हुआ, यथा- देवसूरिः शरच्छते विक्रमतः सपादे…. अर्थात् विक्रम से १२५ वर्ष पर देवसूरि ने कोरण्टक में प्रतिष्ठा कराई…। इस प्रकार गुर्वावली में बाद के पट्टधरों के प्रसंगों की गणना विक्रम से दर्शाई गई है। उपरोक्त गुर्वावली के संदर्भ के आधार पर विक्रम संवत प्रारंभ होने के बाद उसका जैन कालगणना के प्रचलन में लेने का अंतर मात्र १२५ वर्ष का है। यही अंतर विचार श्रेणी के आधार पर ११४ वर्ष आता है। (बाद में भी वीर संवत का उल्लेख नहीं ही हुआ है, ऐसा नहीं है, यथा दो संवत वाले विवरण के प्रथम ही नंबर पर विचार श्रेणी का हमने पाठ दिया है कि, श्रीवीरमोक्षात् ६३९…. श्रीमदंचलगच्छंस्थापयामासः। अर्थात् वीर संवत १६३९ में श्रीमत् अंचलगच्छ की श्री आर्यरक्षितसूरि द्वारा स्थापना की गई।)
  • (五) विक्रम और शक संवत का अंतर दर्शाने वाले प्रमाण-

पर दर्शाए गए वीर-शक संवत के अंतर और वीर-विक्रम संवत के अंतर से शक संवत का विक्रम के साथ अंतर कितना आता है, वह सहज समझा जा सकता है। वीर निर्वाण से विक्रम का ४७० वर्ष का अंतर सिद्ध हुआ और वीर से शक का ६०५ वर्ष का अंतर सिद्ध हुआ। यहाँ ६०५ में से ४७० कम करने पर विक्रम-शक संवत का १३५ वर्ष का अंतर स्पष्ट ही है, फिर भी इस अंतर की विशेष पुष्टी के लिए यहाँ कुछ प्रमाण प्रस्तुत किए जाते हैं।
  • 一) दीपोत्सव कल्प– (कर्ताहेमचन्द्राचार्य, रचना-वि. सं. १३वीं सदी)

(कर्ता- कृति में कर्ता का तथा रचना वर्ष का कोई उल्लेख नहीं है, लेकिन कुछ हस्तप्रतों में हेमचन्द्राचार्य कृत होने के उल्लेख प्राप्त होते हैं, यथा- कोबा ज्ञानमंदिर स्थित वि. सं. १६वीं सदी की हस्तप्रत क्र. ५९२२ में ‘श्रीहेमाचार्य कृतः’ ऐसा स्पष्ट उल्लेख है। इन उल्लेखों के आधार पर तथा काफी श्लोक त्रिषष्टी के पर्व-१० के सर्ग-१३ में मिलते होने से इसके कर्ता हेमचंद्राचार्य माने गए हैं। त्रिषष्टि का रचना वर्ष वि. सं. १२२० है, इस दीपावली कल्प की सबसे प्राचीन . प्रविसं१५५२ की कोबा ज्ञानमंदिर में उपलब्ध है। मूलपाठ हेतु देखें भद्रंकर प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक- दीपालिकाकल्पसंग्रह, पृ.२१) पञ्चत्रिंशत् समधिके वत्सराणां शते ततः। उज्जयिन्यां शकाः स्वस्य वर्त्तयिष्यन्ति वत्सरम्॥१०७॥ अर्थ – (पूर्व श्लोक का अधिकार चल रहा होने से विक्रम के बाद) पेंतीस अधिक सौ (अर्थात् १३५) वर्ष बीतने पर उज्जयिनी में शक राजा स्वयं के संवत्सर को चलाएगा।
  • 二十七) दूषमगण्डिका- (कर्ता- प्रतिप्रभसूरि, समय-वि.सं. १३वीं सदी, उपलब्ध प्राचीनतम प्रत पाटण ज्ञानभंडार में वि. सं. १२८४)

तत्तो पुण पणतीसे, वाससए नरवइ सगो आसी। जेणं सागो उ कओ, ततो पासंगिओ इणमो॥३६॥ अर्थ – उसके (विक्रम के) बाद एक सौ पेंतीस वर्ष पर शक राजा हुआ, जिसने यह प्रासंगिक शक (संवत्सर) किया।
  • 二十八) कालकाचार्य कथा– (कर्ताकालकाचार्य की ही परंपरा के भावदेवसूरि,रचना वर्ष-वि. सं. १३१२)

……कालेण विक्कमाइच्चो…………………….. पणतीसाहिए वाससए(१३५) जाओ पुणो सगो। वच्छरो अंकिओ जेण, वुत्तं पासंगियं इमं॥६४॥ अर्थ – विक्रमादित्य के बाद पेंतीस अधिक सौ (१३५) वर्ष बीतने पर शक राजा हुआ, जिसने संवत्सर चलाया….
  • 二十九) प्रभावकचरित-(कर्ताप्रभाचंद्रसूरि, रचनावर्ष-वि. सं. १३३४)

(सिंघी जैन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक प्रभावकचरितपृ. २५) ……..राजा श्रीविक्रमादित्यः………….अचिकरद् वत्सरं निजम्॥९१॥ ततो वर्षशते पञ्चत्रिंशता साधिके पुनः। तस्य राज्ञोऽन्वयं हत्वा वत्सरः स्थापितः शकैः॥९२॥ अर्थ – …..श्रीविक्रमादित्य राजा…. ने अपना संवत्सर प्रारंभ किया, उसके सौ वर्ष अधिक पेंतीस (अर्थात् १३५) वर्षों बाद उनके वंश को नष्ट करके शक ने अपना संवत्सर स्थापित किया।
  • 三十) दीपालिकाकल्प-(कर्ताजिनसुंदरसूरि, रचना समय१४८३)

(भद्रंकर प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक- दीपालिकाकल्पसंग्रह, पृ.९७) पञ्चत्रिंशद्युते तस्माद्वत्सराणां शते १३५ गते। वर्तयिष्यत्युज्जयिन्यां शकः संवत्सरं निजं॥१२१॥ अर्थ – (तस्मात् अर्थात् विक्रमात्, इससे पूर्व की गाथा में विक्रम का अधिकार चल रहा होने से) विक्रम से पेंतीस युक्त सौ (अर्थात् १३५) वर्ष जाने पर उज्जयिनी में शक राजा स्वयं का संवत्सर चलाएगा। 
  • 三十一) दीपमालिकाव्याख्यान(कर्ताउमेदचन्द्रजी पाठक, रचना समय-वि. सं. १८९६)

(भद्रंकर प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक- दीपालिकाकल्पसंग्रह, पृ.१५५) श्रीविक्रमादित्यात् पञ्चत्रिंशदधिकशतवर्षे (१३५) गते शाकी राजा शालिवाहनो भविष्यति। अर्थ – श्रीविक्रमादित्य के बाद पेंतीस अधिक ऐसे सौ (अर्थात् १३५) वर्ष बीतने पर शालिवाहन नामक शक राजा होगा।
  • (六) विक्रम एवं शक दोनों संवतों के एक साथ उल्लेख वाले प्रमाण-

उपरोक्त प्रमाण विक्रम से शक संवत के बीच १३५ वर्ष के अंतर को दर्शाते हैं। अब ऐसे प्रमाण भी हम आपको दर्शाते हैं कि जिनमें एक साथ दो-दो संवतों का उल्लेख हो। यह प्रमाण दो संवतों के बीच के अंतर को निर्विवाद सुनिश्चित करने हेतु बड़े निर्णायक कहे जा सकते हैं।  प्राचीन शिलालेख, प्रतिमालेख, ग्रंथों की रचना प्रशस्तिओं, हस्तप्रतों की प्रतिलेखन पुष्पिकाओं, राजाओं के दानपत्र-ताम्रपत्रों आदि में विक्रम और शक दोनों संवतों के उल्लेख एकसाथ दर्शाए गए हो ऐसे कई प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं। उनमें से कुछ यहाँ पर प्रस्तुत कि जा रहें हैं। यह ध्यान रहे कि, विक्रम संवत कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा को प्रारंभ होता है और शक संवत चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को प्रारंभ होता है, अतः एक वर्ष आगे या पीछे होना स्वाभाविक है। इससे अंतर गिनती में कोई अंतर ना समझें। निम्न दर्शित साक्ष्यों में १३५ की जगह १३४ वर्ष अंतर दर्शाने वाले साक्ष्य भी समान अंतर को ही सिद्ध करते हैं, न कि मतांतर। प्रतिलेखक आदि की भ्रांति या क्षति के कारण वर्ष लिखने में कम-ज्यादा अंतर वाले भी प्रमाण मिलते हैं, लेकिन विशेषतः १३५ वर्ष का अंतर दर्शाने वाले ही प्रमाण प्राप्त होते हैं, उनमें से कुछ यहाँ प्रस्तुत किये जाते हैं।
  • 一) पंचाशकप्रकण की पाटण, संघवी पाडा भंडार की हस्तप्रत की प्रतिलेखन पुष्पिका-

संवत् १२८८ वर्षे शाके ११५४ वैशाख शुदि ९ शुक्रदिने चंद्रावत्यां लिखितं……(जै. पु. प्र. संग्रह भा.१, पृ. ११८)
  • 三十二) पाटण धातु प्रतिमा लेख-

सं. १५७६ वर्षे शाके १४४२ प्र.वै.सु. ७ सोमे श्रीउसवंशे……(पा. जै.धा.ले.संग्रह पृ.१५६)
  • 三十三) पाटण धातु प्रतिमा लेख-

संवत् १६१६ वर्षे शाके १४८२ प्रवर्त्तमाने ढंढेरवाडे ढंढेरकुटुंबे श्रीश्रीमालज्ञातीय दोषी ऊका…..(पा.जै.धा.ले.संग्रह पृ.१७०)
  • 三十四) पाटण धातु प्रतिमा लेख-

संवत् १६१६ वर्षे शाके १४८२ प्रवर्त्तमाने चैत्रमासे कृष्णपक्षे रवौ श्रीश्रीमालज्ञातीय……(पा.जै.धा.ले.संग्रह पृ.१७०)
  • 三十五) लुआणा(दियोदर) चैत्ये वासुपूज्यस्वामी धातुमूर्त्ति-

सं० १६२४ वर्षे शाके १४८९ प्रवर्तमाने माघमासे सुदिपक्षे १ सोमे ओसवंशज्ञातीय…..(श्री जैनप्रतिमा लेख संग्रह, संयुक्त ले. क्र.-३६२)
  • 三十六) पाटण धातु प्रतिमा लेख-

सं. १६६२ वर्षे शाके १५२७ प्रवर्त्तमाने फाल्गुनिमासे कृष्णपक्षे द्वितीया शुक्रे सा. श्रीकडूआ….. (पा.जै.धा.ले.संग्रह पृ.१८२)
  • 三十七) पाटण धातु प्रतिमा लेख-

सं. १६६२ वर्षे शाके १५२७ प्रव. फागुण वदि २ शुक्रे. प. लटकण भार्या…… (पा.जै.धा.ले.संग्रह पृ.१८२)
  • 三十八) पाटण धातु प्रतिमा लेख-

सं. १६६२ वर्षे शाके १५२७ प्रवर्त्तमाने फाल्गुनी वदी द्वितीयाशुक्रवारे श्री. कडुआ निशमबाइ….. (पा.जै.धा.ले.संग्रह पृ.१८२)
  • 三十九) कोबा ज्ञानमंदिर स्थित पद्मावती पूजा की हस्तप्रत क्र. १५८३०८ की प्रतिलेखन पुष्पिका-

संवत् १७७५ वर्षे शा १६४० प्रवर्त्तमाने मु. ललितसागरेण फागुण वदि ८ चंद्रे लिपी चक्रे।
  • 四十) कोबा ज्ञानमंदिर स्थित धर्मबुद्धी चतुष्पदी की हस्तप्रत क्र. १४७६१८ की प्रतिलेखन पुष्पिका-

संवत् १८०३ वर्षे शाके १६६८ प्रवर्त्तमाने प्रथम चैत्र शुक्ल षष्टी ६ तिथौ भृगुवारे लिः तत्वबिजयेन॥ यहाँ विक्रम संवत और शक संवत के १३५ वर्ष का अंतर सुस्पष्ट हो जाता है। हम मानते हैं कि, इसे सिद्ध करने के लिए इतने प्रमाण काफी हैं।

महावीर स्वामी से आज तक 2550 वर्षों की अविरत गुरु-शिष्य परंपरा-

पुत्र-पिता-दादा-परदादा आदि की तरह शिष्य-गुरु- दादागुरु आदि की गुरु परंपरा होती है। भगवान महावीर के शिष्य, उस शिष्य के शिष्य, उनके भी शिष्य, इस प्रकार 2550 वर्षों से अविच्छिन्न रूप से अद्यपर्यंत श्रमणों की परंपरा चली आ रही है। परंपरा का भी एक ऐतिहासिक मूल्य है। परंपरा कभी भी आधारविहीन नहीं होती है। भले ही उसके प्रमाण ग्रंथों, शिलालेखों, प्रतिमा लेखों आदि में न मिलें। अनुसंधान के विषय में उसकी हम उपेक्षा नहीं कर सकते हैं। जबकि हमारे पास परंपरा के सभी महापुरुषों के जन्म, दीक्षा, ग्रंथ रचना, प्रतिष्ठा आदि विशिष्ट कार्य, स्वर्गगमन आदि के वर्ष, माह, पक्ष, तिथि आदि के साथ प्रमाण उपलब्ध हैं। उनमें से कुछ के एकाधिक तो कुछ के एकाध भी प्रमाण उपलब्ध हैं। उनका उल्लेख उन-उन समय के प्राचीन, अर्वाचीन विभिन्न ग्रंथ आदि में पाया जाता है। भगवान महावीर से लेकर आज तक विद्यमान अविच्छिन्न शिष्य-परंपरा महावीर स्वामी के निकटतम समय तक पहुँचने का एक प्रमाणभूत आधार है। महावीर स्वामी के शिष्य सुधर्मा स्वामी को क्रमांक 1 पर रखते हुए आज तक की शिष्य परंपरा गिनते हैं तो प्रायः 80 तक जाती है। उदाहरण के लिए कहें तो वर्तमान में राष्ट्रसंत परम पूज्य आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा, भगवान महावीर के 77वें क्रमांक पर बिराजमान हैं, उनके शिष्य, प्रशिष्यादि 80 तक पहुँचते हैं। यहाँ महावीर स्वामी से लेकर 78वें क्रमांक तक के नाम उनका समय, उनके नामोल्लेख वाले शक्यतम प्राचीन प्रमाण तथा पट्टधर के समय का आधार क्या है? उस आधारभूत ग्रंथनाम तथा उनके रचना समय के साथ एक तालिका प्रस्तुत की जाती है। आधारभूत ग्रंथ वैसे तो बहुत हैं, लेकिन यहाँ हमारी दृष्टि से एक समय सीमा के संशोधन के आधार पर यथासंभव सबसे प्राचीन जो संदर्भ मिले हैं, उन्हें दर्शाने का प्रयास किया गया है। जिन पट्टधरों का समय नहीं भी मिलता है, उनका मनुष्य की संभवित आयु, आगे-पीछे रहे गुरु-दादागुरु-शिष्य-प्रशिष्यादि के आधार पर वर्षों का अनुमान लगाया जा सकता है। वैसे और गहन अध्ययन-संशोधन किया जाए तो प्रायः उनका समय भी निकाला जा सकता है, लेकिन वर्तमान की समय मर्यादा के अनुसार विशेष संशोधन में न उतरते हुए पट्टावली आदि से एक समय मर्यादा में जो मिल पाया वह प्रस्तुत किया है।  यहाँ प्रायः सभी में पट्टधरों का स्वर्गगमन वर्ष ही लिया है और उसे स्व. संज्ञा से दर्शाया है। जिनका स्व. काल नहीं मिला, उनका आचार्यपदादि जो मिला उसे दर्शाया है। जहाँ तक वीर निर्वाण में वर्ष मिला है, वहाँ वीर सं. लिया है और आगे फिर विक्रम संवत उपलब्ध होने पर विक्रम संवत दर्शाया है। किसी भी संवत को हमने हमारी गिनती से गिनकर नहीं दर्शाया है बल्कि प्रमाणों के आधार पर ही प्रस्तुत किया है। ध्यान रहे कि, परंपरा जैसे-जैसे आगे बढ़ेगी, वैसे-वैसे उनके प्रमाण भी परवर्ती होते चले जायेगें। सभी में प्राचीन प्रमाण यहाँ नहीं हो सकते। यथा क्रमशः आगे चलते हुए १९वीं सदी के विद्वान पर जायेगें तो उनके लिए उससे प्राचीन प्रमाण कैसे हो सकते हैं? वह तो उनके समय के या परवर्ती ग्रन्थ के ही प्रमाण मिलेंगे, जो स्वाभाविक है और भी क्रमशः आगे चलने पर जब हम राष्ट्रसंत श्री पद्मसागरसूरिजी तक पहुँच जायेगें तो वहाँ प्राचीन,अर्वाचीन आदि कोई प्रमाण न होकर मात्र वर्तमान चालू वर्ष के साथ विद्यमान हैं  ऐसा ही मिलेगा यहाँ प्रधान लक्ष्य पुरुष-परंपरा की अविच्छिन्नता को दर्शाने का है। फिर भी हमने पट्टधरों के वर्षों को भी दर्शा दिया है, जो एक विशेष उपहार स्वरुप है।   

क्रम

नाम

समय

पट्टधर के उल्लेख का प्राचीन प्रमाण

पट्टधर के समय का आधार

1

सुधर्मास्वामी

 वीर निर्वाण 20 में स्व.

कल्पसूत्र, रचयिता सुधर्मास्वामी

कालसप्ततिका वि. सं. 1327 के आसपास

2

जंबुस्वामी

वीर निर्वाण 64 में स्व.

उपरोक्त अनुसार

कालसप्ततिका वि. सं. 1327 के आसपास

3

प्रभवस्वामी

 वीर निर्वाण 75 में स्व.

उपरोक्त अनुसार

विचारश्रेणी, रचना- वि. सं. १४वीं सदी

4

स्वयंभवसूरि

 वीर निर्वाण 98 में स्व.

उपरोक्त अनुसार

विचार श्रेणी रचना- वि. सं. १४वीं सदी

5

यशोभद्रसूरि

वीर निर्वाण 148 में स्व.

उपरोक्त अनुसार

विचार श्रेणी, रचना- वि. सं. १४वीं सदी

6

संभूति विजयजी और भद्रबाहुस्वामी

वीर निर्वाण 156 में स्व.वीर निर्वाण 170 में स्व.

उपरोक्त अनुसार

कालसप्ततिका. वि.सं. 1327 के आसपास विचारश्रेणी रचना, वि. सं. १४वीं सदी

7

स्थुलीभद्रस्वामी

वीर निर्वाण 215 में स्व.

उपरोक्तअनुसार

कालसप्ततिका वि. सं. 1327 के आसपास

8

आर्य महागिरि और आर्य सुहस्तिसूरि

वीर निर्वाण 245 में स्व.वीर निर्वाण 291 में स्व.

उपरोक्त अनुसार

विचार श्रेणी, रचना- वि. सं. १४वीं सदी

9

सुस्थितसूरि और सुप्रतिबद्धसूरि

सुस्थितसूरि- वीर निर्वाण 339 में स्व.

उपरोक्त अनुसार

धर्मसागरजी पट्टावली, रचना- वि.सं.1648

10

इन्द्रदिन्नसूरि

वीर निर्वाण 421 में स्व.

उपरोक्त अनुसार

वीरवंशावलि, रचना- वि.सं.1806 (आसपास)

11

दिन्नसूरि

अनुपलब्ध

उपरोक्त अनुसार

अनुपलब्ध

12

सिंहगिरि

वीर निर्वाण 547 में स्व.

उपरोक्त अनुसार

वीरवंशावलि, रचना वि.सं.1806

13

वज्रस्वामी

वीर निर्वाण 584 में स्व.वि.सं. 114 में स्व.

उपरोक्त अनुसार

कालसप्ततिका वि. सं. 1327 के आसपास. विचारश्रेणी, रचना- वि. सं. १४वीं सदी

14

वज्रसेनसूरि

वीर निर्वाण 620 में स्व.

उपरोक्त अनुसार

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

15

चंद्रसूरि

वीर निर्वाण 643 में स्व.

उपरोक्त अनुसार

धर्मसागरजी पट्टावली, रचना-वि.सं.1648

16

सामन्तभद्रसूरि

वीर निर्वाण 650 में उनके कारण निर्ग्रन्थ गच्छ का वनवासी गच्छ नाम हुआ.

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

जैन परंपरानो इतिहास भा.1, पृ.345,प्रकाशन- वि. सं. 2009

17

वृद्धदेवसूरि

वीर निर्वाण 595, वि.सं.125 में कोरंट में प्रतिष्ठा करवाई 

 गुर्वावली, रचना- वि.सं.1466

गुर्वावली, रचना- वि.सं.1466 धर्मसागरजी पट्टावली, रचना- वि.सं.1648

18

प्रद्योतनसूरि

वीर निर्वाण 698 में स्व.

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

जैन परंपरानो इतिहास भा.1, पृ. 352.

19

मानदेवसूरि

वीर निर्वाण 731 में स्व.

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

जैन परंपरानो इतिहास भा.1, पृ.361, प्रकाशन- वि.सं. 2009

20

मानतुंगसूरि

 भक्तामर स्तोत्र रचयिता. समय-अनुपलब्ध

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

अनुपलब्ध

21

श्री वीरसूरि

वीर संवत 770 और वि. सं. 300 में नागपुर में प्रतिष्ठा करवाई 

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466 धर्मसागरजी पट्टावली, रचना-वि.सं.1648

22

जयदेवसूरि

 वीर सं. 833 में स्व.

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

जैन परंपरानो इतिहास, भा.1 पृ.369, पुस्तक प्रकाशन वर्ष- वि.सं.2009

23

देवानंदसूरि

 अनुपलब्ध

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

अनुपलब्ध

24

विक्रमसूरि

अनुपलब्ध

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

अनुपलब्ध

25

नरसिंहसूरि

अनुपलब्ध

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

अनुपलब्ध

26

समुद्रसूरि

 अनुपलब्ध

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

अनुपलब्ध

27

मानदेवसूरि

 वि.सं. 582 में आचार्य पदारूढ.हरिभद्रसूरि के मित्र- गुर्वावली. 

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

बृहद्गच्छसूरिविद्यापाठ प्रशस्ति, जैन परंपरानो इतिहास, भा.1 पृ.446, पुस्तक प्रकाशन वर्ष- वि.सं. 2009

28

विबुधप्रभसूरि

वि.सं.640 मे शंकरगण राजा द्वारा कुल्पाकजी तीर्थ की प्रतिष्ठा हुई, इस समयावधि के विबुधप्रभसूरि है.

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

जैन परंपरानो इतिहास, भा.1, पृ. 453, पुस्तक प्रकाशन वर्ष- वि.सं. 2009.

29

जयानंदसूरि

वि.सं. 664-700 का समय हर्षवर्द्धन राजा का माना जाता है, जयानंदसूरि भी इसी समयान्तर के माने जाते हैं.

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

जैन परंपरानो इतिहास, भा.1, पृ.457

30

रविप्रभसूरि

वि.सं.700 में नाडोल नेमिजिन चैत्य प्रतिष्ठा करवाई

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

गुर्वावली, रचना- वि.सं.1466

31

यशोदेवसूरि

 वीर सं. 1272,वि. सं. 802 में वनराज द्वारा पाटण की स्थापना हुई, इस समयावधि में यह थे. 

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

धर्मसागरजी पट्टावली, रचना-वि.सं.1648

32

प्रद्युम्नसूरि

अनुपलब्ध

गुर्वावली, रचना- वि.सं. 1466

अनुपलब्ध

33

मानदेवसूरि

उपधानवाच्यग्रन्थविधाता. समय- अनुपलब्ध 

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

धर्मसागरजी पट्टावली, रचना-वि.सं.1648

34

विमलचंद्रसूरि

वि.सं. 980 में वीरसूरि को दीक्षा दी थी

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

प्रभावक चरित्र, रचना- वि.सं.1334

35

उद्योतनसूरि

वि.सं.994 में सर्वदेवसूरि आदि 8 शिष्यों को आचार्यपद, वटगच्छ स्थापना.

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

36

सर्वदेवसूरि

वि.सं. 994 में आचार्यपदारूढ, वि.सं.1010 में रामसैन्यपुर में आदिजिन प्रतिष्ठा करवाई 

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

 गुर्वावली, रचना- वि.सं.1466

37

देवसूरि

 वि.सं. 1110 या 1125 में स्व.

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

जैन परंपरानो इतिहास भा.2, पृ. 254, प्रकाशन वर्ष- वि.सं.2016

38

सर्वदेवसूरि

वि.सं.1037 में स्व. (अनुमानित)

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

 

39

यशोभद्रसूरि

 वि.सं. 1129 से 1139 के बीच शिष्य मुनिचंद्रसूरि को आचार्य पद देकर पाट पर स्थापित किया.(षोडषक-वृत्ति के रचयिता माने जाते है.)

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

जैन परंपरानो इतिहास भा.2, पृ.416, प्रकाशन वर्ष- वि.सं. 2016

40

मुनिचंद्रसूरि

वि. सं. 1178 स्व.

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

गुर्वावली, रचना- वि.सं.1466

41

अजितदेवसूरि

 वि.सं. 1191 में जीराववाजी प्रतिष्ठा की. सिद्धराज जयसिंह द्वारा सम्मानित

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

वीरवंशावली, रचना- वि.सं. 1806

42

विजयसिंहसूरि

 वि.सं. 1206 में आरासण प्रतिष्ठा की. वि. सं. 1322 की सर्वाधिक प्राचीन खंभात की हस्तप्रत, जिसमें बालचंद्रसूरि रचित विवेकमंजरी टीका है, इस टीका के रचयिता बालचंद्र के ग्रन्थ का शुद्धिकरण विजयसिंहसूरि ने किया था.

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

आरासणतीर्थ प्रतिष्ठा लेख. विवेकमंजरी-टीका की उपलब्ध सर्वाधिक प्राचीन खंभात की हस्तप्रत, लेखन समय- वि.सं. 1322

43

सोमप्रभसूरि 

वि. सं. 1241 में कुमारपालप्रतिबोध ग्रन्थ की रचना की

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

कुमारपालप्रतिबोध, रचना- वि. सं. 1241

44

जगच्चंद्रसूरि

वि. सं. 1285 में तपागच्छ नामकरण

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

गुर्वावली, रचना- वि.सं.1466

45

देवेन्द्रसूरि

वि. सं. 1327 स्व.

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

धर्मसागरजी पट्टावली, रचना-वि.सं.1648

46

धर्मघोषसूरि 

वि.सं.1327 में कालसप्ततिका ग्रंथ की रचना की. वि.सं. 1357 में स्व.

कालसप्ततिका, रचना – वि.सं. 1327 गुर्वावली, रचना- वि.सं. 1466

कालसप्ततिका, रचना – वि.सं. 1327 गुर्वावली, रचना- वि.सं. 1466

47

सोमप्रभसूरि

वि. सं. 1373 स्व.

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

48

सोमतिलकसूरि

 वि. सं. 1424 स्व.

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

49

देवसुंदरसूरि

वि. सं. 1420 में आचार्यपद

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

50

सोमसुंदरसूरि

वि. सं. 1457 में आचार्यपद

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

51

मुनिसुंदरसूरि

वि. सं. 1466 में गुर्वावली की रचना की

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

गुर्वावली, रचना-वि.सं.1466

52

रत्नशेखरसूरि

 वि.सं.1516 में आचारप्रदीप ग्रन्थ की रचना की

धर्मसागरजी पट्टावली, रचना

आचारप्रदीप ग्रन्थ, रचना-वि. सं. 1516

53

लक्ष्मीसागरसूरि

वि. सं. 1470 में दीक्षा ली थी. (उम्र वर्ष-6)

गुरुगुणरत्नाकर, रचना- वि.सं.1541

गुरुगुणरत्नाकर, रचना- वि.सं.1541

54

सुमतिसाधुसूरि

वि. सं. 1545-1551 संभवित गच्छनायक पद पर्याय काल

धर्मसागरजी पट्टावली, रचना-वि.सं.1648

धर्मसागरजी पट्टावली, रचना-वि.सं.1648

55

हेमविमलसूरि

वि. सं. 1584 में स्व.

धर्मसागरजी पट्टावली, रचना-वि.सं.1648

धर्मसागरजी पट्टावली, रचना-वि.सं.1648

56

आनंदविमलसूरि

वि. सं. 1596 में स्व.

धर्मसागरजी पट्टावली, रचना-वि.सं.1648

धर्मसागरजी पट्टावली, रचना-वि.सं.1648

57

विजयदानसूरि

वि. सं. 1622 में स्व.

धर्मसागरजी पट्टावली, रचना-वि.सं.1648

धर्मसागरजी पट्टावली, रचना-वि.सं.1648

58

हीरविजयसूरि

वि. सं. 1652 में स्व.

धर्मसागरजी पट्टावली, रचना-वि.सं.1648

धर्मसागरजी पट्टावली, रचना-वि.सं.1648

59

उ. सहजसागर

 वि.सं.1639 में हीरसूरि के साथ फत्तेहपुर सिक्री गए थे.

विजयप्रशस्ति काव्य-टीका, रचना-वि. सं. 1688 

विजयप्रशस्ति काव्य-टीका, रचना-वि. सं. 1688

60

जयसागर

 वि.सं. 1645 में पार्श्वजिन की स्तवना का लेखन किया. 

घाणेराव भंडार स्थित पार्श्वजिन स्तवन की हस्तप्रत नं. 6228, लेखन समय- वि.सं. 1645

घाणेराव भंडार स्थित पार्श्वजिन स्तवन की हस्तप्रत नं. 6228, लेखन समय- वि.सं. 1645

61

गणि. जीतसागर

अनुपलब्ध

श्रीसुखसागर गुरुगीता तथा तपागच्छे सागरशाखा पट्टावलि, प्रकाशन वर्ष वि.सं. 1972

अनुपलब्ध

62

मानसागर

वि.सं. 1724 में विक्रमसेन राजा चौपाई की रचना की. वि.सं. 1754 में कल्पसूत्र-टीका की रचना की. 

 विक्रमसेन राजा चौपाई, रचना- वि.सं. 1724 (वि.सं. 1759 में लिखित कोबा ज्ञानमंदिर की हस्तप्रत नं.150832)

विक्रमसेन राजा चौपाई, रचना- वि.सं. 1724(वि.सं. 1759 में लिखित कोबा ज्ञानमंदिर की हस्तप्रत नं.150832) कल्पसूत्र-टीका की कोबा स्थित, ह.प्र. नं. 3726

63

मयगलसागर

अनुपलब्ध

श्रीसुखसागर गुरुगीता तथा तपागच्छे सागरशाखा पट्टावलि, प्रकाशन वर्ष वि.सं. 1972

अनुपलब्ध

64

पद्मसागर

वि. सं. 1824 में स्व.

पद्मसागरजी निर्वाण रास, रचना- वि.सं. 1824

पद्मसागरजी निर्वाण रास, रचना- वि.सं. 1824

65

सुज्ञानसागर

वि. सं. 1817, 1819, 1824 रास पद्माकर- पद्मसागर निर्वाण रासवि. सं. 1838 में स्व.

श्रीसुखसागर गुरुगीता तथा तपागच्छे सागरशाखा पट्टावलि, प्रकाशन वर्ष- वि.सं.1972

पद्मसागरजी निर्वाण रास, रचना- वि.सं. 1824

66

सरूपसागर

वि. सं. 1866 में स्व.

श्रीसुखसागर गुरुगीता तथा तपागच्छे सागरशाखा पट्टावलि, प्रकाशन वर्ष- वि.सं.1972

पुस्तक- जैन ऐतिहासिक रासमाला, प्रकाशन वर्ष- 1969 

67

ज्ञानसागर

 वि.सं.1887 में स्व.

श्रीसुखसागर गुरुगीता तथा तपागच्छे सागरशाखा पट्टावलि, प्रकाशन वर्ष- वि.सं.1972

पुस्तक- जैन ऐतिहासिक रासमाला, पृ.13, प्रकाशन वर्ष- वि.सं. 1969 

68

मयासागर

वि.सं. 1851 में कालिकाचार्य की कथा का लेखन किया. 

कालिकाचार्य कथा की कोबा ज्ञानमंदिर स्थित हस्तप्रत नं. 9684, लेखन वर्ष-1851.

कालिकाचार्य कथा की कोबा ज्ञानमंदिर स्थित हस्तप्रत नं. 9684, लेखन वर्ष-1851.

69

नेमसागर

 वि.सं.1907-1913 तक पट्टधर थे

श्रीसुखसागर गुरुगीता तथा तपागच्छे सागरशाखा पट्टावलि, प्रकाशन वर्ष- वि.सं.1972

श्रीसुखसागर गुरुगीता तथा तपागच्छे सागरशाखा पट्टावलि, प्रकाशन वर्ष- वि.सं.1972

70

रविसागर

वि. सं. 1913-1954 तक पट्टधर थे

श्रीसुखसागर गुरुगीता तथा तपागच्छे सागरशाखा पट्टावलि, प्रकाशन वर्ष- वि.सं.1972

श्रीसुखसागर गुरुगीता तथा तपागच्छे सागरशाखा पट्टावलि, प्रकाशन वर्ष- वि.सं.1972त

71

सुखसागर

वि.सं. 1943 में दीक्षा ली.

श्रीसुखसागर गुरुगीता तथा तपागच्छे सागरशाखा पट्टावलि, प्रकाशन वर्ष- वि.सं.1972

पुस्तक- जैन रासमाळा, पृ.13, प्रकाशन वर्ष- वि.सं. 1969

72

बुद्धिसागरसूरि

वि. सं. 1969 में पट्टधरपदारूढ हुए

श्रीसुखसागर गुरुगीता तथा तपागच्छे सागरशाखा पट्टावलि, प्रकाशन वर्ष- वि.सं.1972

श्रीसुखसागर गुरुगीता तथा तपागच्छे सागरशाखा पट्टावलि, प्रकाशन वर्ष- वि.सं.1972

73

कीर्तिसागरसूरि

वि. सं. 2026 मे स्व.

पुस्तक- सागरना स्मरण तीर्थे, प्रकाशन वर्ष- वि.सं.2047

पुस्तक- सागरना स्मरण तीर्थे, प्रकाशन वर्ष- वि.सं.2047

74

जितेन्द्रसागर

 वि.सं. 1994 में कैलाससागरसूरि को दीक्षा प्रदान

पुस्तक- आतमज्ञानी श्रमण कहावे, प्रकाशन वर्ष- 2048

पुस्तक- आतमज्ञानी श्रमण कहावे, प्रकाशन वर्ष- वि.सं. 2048

75

कैलाससागरसूरि

 वि.सं.2041 में स्व.

पुस्तक- आतमज्ञानी श्रमण कहावे, प्रकाशन वर्ष- 2048

पुस्तक- आतमज्ञानी श्रमण कहावे, प्रकाशन वर्ष- वि.सं. 2048

76

कल्याणसागरसूरि

 वि.सं.1954 में पद्मसागरसूरि को दीक्षा प्रदान

पुस्तक- जिनशासनना समर्थ उन्नायक आचार्य श्री पद्मसागरसूरि, प्रकाशन वर्ष- वि.सं. 2065 

पुस्तक- जिनशासनना समर्थ उन्नायक आचार्य श्री पद्मसागरसूरि, प्रकाशन वर्ष- वि.सं. 2065

77

पद्मसागरसूरि (राष्ट्रसंत)

वि.सं. 1992 में जन्म, वि. सं. 2080 में विद्यमान है.

वर्तमान में विद्यमान 

वर्तमान में विद्यमान

78

अजयसागरसूरि

वि. सं. 2020 में जन्म, (वि. सं. 2080 में विद्यमान है.)

वर्तमान में विद्यमान

वर्तमान में विद्यमान

 

निष्कर्ष- 

इस लेख में प्रस्तुत किए गए प्रमाणों में से वीर और शक संवत का अंतर दर्शाने वाले प्रमाण- ७, वीर और विक्रम संवत का अंतर दर्शाने वाले प्रमाण- ११, दो संवतों के अंतर की सिद्धि के प्रबल साक्ष्य ऐसे वीर-विक्रम दो संवतों के एकसाथ उल्लेख वाले प्रमाण- ९, दो संवतों के अंतर की प्रबल पुष्टि के कारक एक ही प्रसंग हेतु विभिन्न ग्रंथों में वीर-विक्रम दोनों संवतों के उल्लेख वाले प्रमाण- ६, विक्रम और शक संवत का अंतर दर्शाने वाले प्रमाण- ६, विक्रम एवं शक दोनों संवतों के एक साथ उल्लेख वाले प्रमाण- १०, इस प्रकार कुल ४९ प्रमाण, जिनमें ३१ प्रमाण आज (वि. सं. २०८०) से पूर्व ५०० वर्ष से लेकर १४०० वर्ष तक के प्राचीनतम प्रमाण हैं और १८ प्रमाण वि.सं.आज (२०८०) से पूर्व २०० से लेकर ५०० वर्ष तक के हैं।  इस विस्तृत शोध के आधार पर तय होता है कि लगभग २००० वर्षों में लिखे गए सभी प्राचीन ग्रंथों में तीनों संवतों में कोई विराम या विसंवाद नहीं है। इसके अतिरिक्तअध्ययन किए गए किसी भी प्राचीन जैन ग्रंथ में कहीं भी दो अलग विक्रम या दो अलग शक संवत का कोई संकेत नहीं मिला। उपरोक्त प्रमाणों एवं महावीर स्वामी से लेकर अद्यपर्यन्त की वर्ष उल्लेखों के साथ रही गुरुशिष्य की परंपरा से यह भी सिद्ध होता है किउपरोक्त संवतों का प्रचलन बीच में किसी भी समयखंड में भूले बिना जैन परंपरा में अस्खलितरूप से होता रहा है। इस प्रकार प्राचीन जैन ग्रंथों ने भारत के समृद्ध इतिहास और संस्कृति को संरक्षित रखा है। संभव है कि पूरे भारत में जैन भंडारों में और भी कई इतिहास छिपे हों। प्रमाणभूत इन तमाम साक्ष्यों, शास्त्रपाठों, उल्लेखों के आधार पर निःसंदेह कहा जा सकता है कि, वीर से शक संवत का अंतर ६०५ वर्ष, वीर से विक्रम संवत का अंतर ४७० वर्ष तथा विक्रम से शक संवत का अंतर १३५ वर्ष है। इसमें कोई संदेह नहीं है। इतना सिद्ध होने पर ईस्वी सन की गणना तीनों संवतों से की जा सकती है, जो इस प्रकार है- वीर निर्वाण से ५२७ वर्ष बाद, विक्रम से ५६ वर्ष बाद और शक से ७९ वर्ष पूर्व का अंतर ईस्वी सन का है। यहाँ पर ध्यान रहे कि ईस्वी सन जनवरी की पहली तारीख की मध्य रात्रि से बदलता है। जब कि विक्रम संवत कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा-एकम के सूर्योदय से प्रारंभ होता है। जो कि अक्तूबर, नवंबर महिने में आता है।  उपरोक्त तमाम प्रमाणों, साक्ष्यों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि वीर निर्वाण विक्रम से ४७० वर्ष पूर्व एवं ई.स. से ५२७ वर्ष पूर्व हुआ था। इस बात से जैनधर्म के श्वेताम्बर और दिगंबर दोनों ही प्रधान परंपराएँ एकमत है। वर्तमान में वीर संवत २५५०, शक संवत १९४५, विक्रम संवत २०८० और ई.स. २०२४ प्रवर्त्तमान है। अस्तु।

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संदर्भसूची

  • 1. तित्थोगालीपइण्णय
  • 2. तिलोयपण्णत्ति (कर्ता- यति वृषभाचार्य, रचना-वि. सं. ६वीं सदी)
  • 3. धवला टीका (कर्ता-वीरसेनाचार्यजी, रचना समय- वि. सं. ८वीं सदी)
  • 4. पंचवस्तुक प्रकरण (कर्ता-हरिभद्रसूरि, कर्ता का समय वि. सं. ५८५, मतांतर वि. सं. ८वीं सदी)
  • 5. हरिवंशपुराण (कर्ता- जिनसेनाचार्य, दिगं. रचना- शक सं. ७०५,वि. सं. ८४०)
  • 6. जंबूस्वामी चरित (कर्ता-महाकवि वीर, रचना-वि.सं. १०७६)
  • 7. त्रिलोकसार (कर्ता- सिद्धान्तचक्रवर्तिनेमिचन्द्राचार्य, दिगं. समय-वि. सं. ११वीं सदी पूर्वार्ध)
  • 8. महावीर चरियं (कर्ता- नेमिचंद्रसूरि, रचना- वि.सं.११४१)-
  • 9. दूषमगण्डिका (कर्ता- प्रतिप्रभसूरि, समय-वि.सं. १३वीं सदी, उपलब्ध प्राचीनतम प्रतवि. सं. १२८४)
  • 10. पंचाशकप्रकण की पाटण, संघवी पाडा भंडार की वि. सं. १२८८ की हस्तप्रत की प्रतिलेखन पुष्पिका
  • 11. दीपोत्सव कल्प (कर्ता- हेमचन्द्राचार्य, रचना-वि. सं. १३वीं सदी)
  • 12. कालकाचार्य कथा- (कर्ता- कालकाचार्य की ही परंपरा के भावदेवसूरि, रचना वर्ष-वि. सं. १३१२)
  • 13. कालसप्ततिका- (कर्ता- धर्मघोषसूरि, कर्ता का आचार्य पद समयवि. सं. १३२७)
  • 14. प्रभावकचरित- (कर्ता- प्रभाचंद्रसूरि, रचनावर्ष-वि. सं. १३३४)
  • 15. दीपालिकापर्वकल्प- (कर्ता- विनयचचन्द्रसूरि,रचना समय-वि. सं. १३४५)
  • 16. विविधतीर्थकल्पे अपापाबृहद्कल्प (अपर नाम-दीपोत्सव कल्प, कर्ता-जिनप्रभसूरि, रचना- वि. सं. १३८७) 
  • 17. विचारश्रेणी (कर्ता- मेरुतुंगसूरि, वि.सं. १४वीं सदी)
  • 18. प्रबंधकोश- (कर्ता- राजशेखरसूरि, रचना समय- वि.सं.१४०५)
  • 19. गुर्वावली (कर्ता- मुनिसुंदरसूरि, रचना समय- वि.सं.१४६६)
  • 20. तपागच्छ पट्टावली (कर्ता- धर्मसागरजी रचना समय- वि.सं.१६४८)
  • 21. दीपालिकाकल्प- (कर्ता- जिनसुंदरसूरि, रचना समय-वि. सं. १४८३)
  • 22. वि.सं. १५७६ का पाटण धातु प्रतिमा लेख
  • 23. वि.सं. १६१६ का पाटण धातु प्रतिमा लेख
  • 24. वि.सं. १६१६ का दूसरा पाटण धातु प्रतिमा लेख
  • 25. वि.सं. १६२४ का लुआणा(दियोदर) चैत्य का वासुपूज्यस्वामी धातुमूर्त्ति का लेख
  • 26. वि.सं. १६६२ का पाटण धातु प्रतिमा लेख
  • 27. वि.सं. १६६२ का दूसरा पाटण धातु प्रतिमा लेख
  • 28. वि.सं. १६६२ का तीसरा पाटण धातु प्रतिमा लेख
  • 29. कोबा ज्ञानमंदिर स्थित पद्मावतीपूजा की हस्तप्रत क्र. १५८३०८ की प्रतिलेखनपुष्पिका
  • 30. कोबा ज्ञानमंदिर स्थित धर्मबुद्धी चतुष्पदी की हस्तप्रत क्र. १४७६१८ की प्रतिलेखनपुष्पिका
  • 31. दीपमालिकाव्याख्यान- (कर्ता- उमेदचन्द्रजी पाठक, रचना समय-वि. सं. १८९६)
  • 32. श्री लक्ष्मणभाई भोजक द्वारा संपादित, मोतीलालबनारसीदास पब्लिशर्स प्राईवेट लिमिटेडदिल्ली द्वारा प्रकाशित पुस्तक पाटण जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह
  • 33. यतींद्र साहित्य सदन घामाणिया, राजस्थान द्वारा प्रकाशित पुस्तक “श्री जैनप्रतिमा लेखसंग्रह”
  • 34. श्री जिनविजयजी संपादित पुस्तक “पुरातनसमय लिखित जैनपुस्तक प्रशस्तिसंग्रह भा. १”
  • 35. भद्रंकर प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक “दीपालिकाकल्पसंग्रह”
  • 36. सिंघी जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित पुस्तक प्रभावकचरित 
  • 37. हेमचंद्राचार्य जैन सभा पाटण द्वारा प्रकाशित पुस्तक “चतुर्विंशति प्रबंध”
  • 38. कल्पसूत्र
  • 39. प्रभावक चरित्र, रचना- वि.सं.1334
  • 40. कोबा ज्ञानमंदिर लायब्रेरी प्रोग्राम
  • 41. विवेकमंजरी-टीका की उपलब्ध सर्वाधिक प्राचीन खंभात की हस्तप्रत
  • 42. कुमारपालप्रतिबोध, रचना-वि. सं. 1241
  • 43. आचारप्रदीप ग्रन्थ, रचना-वि. सं. 1516
  • 44. गुरुगुणरत्नाकर, रचना- वि.सं.1541
  • 45. विजयप्रशस्ति काव्य-टीका, रचना-वि. सं. 1688 
  • 46. श्रीसुखसागर गुरुगीता तथा तपागच्छे सागरशाखा पट्टावलि, प्रकाशन वर्ष- वि.सं.1972
  • 47. श्रीतपागच्छ गुर्वावली, प्रकाशन वर्ष- वि.सं. 2070
  • 48. घाणेराव भंडार स्थित पार्श्वजिन स्तवन की हस्तप्रत नं. 6228, लेखन समय- वि.सं. 1645
  • 49. वि.सं. 1759 में लिखित कोबा ज्ञानमंदिर की हस्तप्रत
  • 50. विक्रमसेन राजा चौपाई, रचना- वि.सं. 1724
  • 51. वि.सं. 1754 में मानसागरजी रचित कल्पसूत्र की टीका, कोबा स्थित ह.प्र. नं. 150832
  • 52. पुस्तक- श्रेष्ठीवर्य शांतिदास
  • 53. पुस्तक- आतमज्ञानी श्रमण कहावे, प्रकाशन वर्ष- वि. सं. 2048
  • 54. पुस्तक- सागरना स्मरण तीर्थे, प्रकाशन वर्ष- वि.सं. 2047
  • 55. पुस्तक- जैन परंपरानो इतिहास, भा.1, 2, आवृत्ति-1
  • 56. वीरवंशावलि
  • 57. जैन साहित्य संशोधक, खंड 1, अंक 3
  • 58. बृहद्गच्छसूरिविद्यापाठ प्रशस्ति, 
  • 59. आरासण प्रतिष्ठा लेख
*****   Editorial English Summary: This paper in Hindi attempts to address the following issues concerning three different eras (samvats) in ancient Jain texts, aiming to ascertain the coherence of the data and continuity across them, and to determine the year of Mahavir Nirvan. The author utilizes ancient scriptures dating from approximately the 2nd century A.D. to the 17th century A.D., excluding very recent data from the last few hundred years. India has numerous eras, possibly more than 30, which are extensively detailed in Mr. Oza’s book. For Jain texts, three different eras are relevant:
  • 1. Mahavir Nirvan Samvat: Commencing from 527 B.C.E.
  • 2. Shak Samvat: Commencing from 78 A.D.
  • 3. Vikram Samvat: Commencing from 57 B.C.E.
In recent years, several historians have voiced concerns that the ancient Indian as well as Jain scriptures may have experienced discrepancies in their year counts, ranging from 30 years to several hundred years. Some scholars speculate whether the original Shak Era and Vikram Era were even forgotten for centuries and later restarted based on similarities in the names of reigning kings. To address these concerns, this paper undertook one of the most comprehensive research endeavors in Jain history. The scholar had access to an extensive database of ancient Jain manuscripts, iconography, and inscriptions found on ancient idols of Jinas. The writer employed various types of analyses to evaluate the Shak Samvat and Vikram Samvat in relation to the year of Mahavir Nirvan  
  • 1. Verification of Shak Samvat with respect to Mahavir Nirvan in ancient Jain granths
  • 2. Verification of Vikram Samvat with respect to Mahavir Nirvan in ancient Jain granths
  • 3. Mahavir Nirvan Samvat (Veer Samvat) and Vikram Samvat stated together 
  • 4. The same event described in different granths and using different samvats arriving at the same Veer Samvat year
  • 5. The usage of Mahavir Nirvan Samvat and Vikram Samvat in Jain ancient scriptures
  • 6. The difference of years between the Shak Samvat and Vikram Samvat and reference year for both the samvats. 
  • 7. Vikram and Shak Samvats stated together in the same Granth
In the end, the writer has showcased a remarkable continuity of acharyas (pontiffs) from Tirthankar Mahavir Nirvan year (527 B.C.) to the present Acharya Shri Ajay Sagar Ji, the chief mentor of the Shri Kailashasagar Gyan Mandir of Koba, Ahmedabad, India.  In summary, through historic endeavors and the utilization of over 50 ancient Jain scriptures, the writer has clearly demonstrated that, based on the mainly Svetambara sect Jain texts, there exists no ambiguity, break, or discontinuity in the use of Vikram, Shak, and Mahavir Nirvan Samvat as 527 B.C.E.. Though the findings are mainly based on Swetambar granths; however, quite a few important and fundamental Digambar granths are also referred in here like Tiloy Pannati, Dhawala, etc.. It is anticipated that a similar comprehensive and detailed research using additional Digambar sect granths would yield similar results.