हस्तप्रत सूचीकरण कार्य के अन्तराल में ध्यान में आई हुई जैसी भी प्रत, जिस रूप में हो, उसका योग्य रूप से परिचय देना होता है। अन्तरंग या बहिरंग जो भी स्वरूप है, प्रत की जो मौलिकता है, वास्तविकता है, उसका यथार्थ परिचय दिया जाता है। यहाँ पर गुण या दोष किसी का भी आग्रह न रखकर प्रत में जो वस्तु विद्यमान है, प्रत जैसी दीख रही है, उसी का वास्तविक विवरण सूचीपत्र में किया जाता है। लेखन कला के उद्भव और विकास के साथ-साथ विविध प्रकार की लिपियों का भी यथायोग्य परिचय विविध विद्वानों के द्वारा लिखे गए पुस्तकों से हमें प्राप्त हो रहा है।
सूचीकरण कार्य के अन्तर्गत विविध प्रतों के प्राप्त हो रहे अलग-अलग अनुभवों को वाचकों से साझा करने हेतु ही यह प्रयास है। प्रतों में विविध प्रकार की सम्भावनाएँ छिपी रहती हैं। कई बार प्रतों के विशिष्ट गुण के रूप में तो कई बार प्रतों में प्राप्त दोष के रूप में। हमें दोनों से परिचित होना है, जानना है और जानकर सम्पादन संशोधन में प्रतों को पहचानने में उपयोग करना है। काफी सावधानीपूर्वक लिखे जाने के बाद भी विविध संयोगों के कारण प्रमादादिवशात् क्षतियाँ पाई जाती हैं। ऐसे ही क्षति के प्रकार का उदाहरण इस बार एक प्रत के माध्यम से बताया जा रहा है।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर के हस्तप्रत भण्डार में सूचीपत्र क्रमांक-३७ में मुद्रित होनेवाली प्रत संख्या-१७८१९८ है। इस प्रत में मरणसमाधि प्रकीर्णक मूलमात्र है। प्रतिलेखन संवत् अनुमानतः १९वीं है। मात्र बीच का ही एक पत्र होने से प्रत/कृति अपूर्ण है। पत्रांक ४५वां है। वामपार्श्व का हाँसियावाला भाग आंशिक खंडित है। हुंडीं में मरणसमाधि उल्लिखित है। वाम पार्श्व के ऊपरी तथा दक्षिण पार्श्व के नीचले भाग में पत्रांक लिखा गया है। पत्र में कुल १२ पंक्तियाँ हैं। लम्बाई २७ व चौड़ाई १०.५ से.मी. है। पंक्ति में प्रायः ४३ अक्षर हैं। अब इस लेख के लेखन के उद्देश्य की ओर ध्यानाकृष्ट कराना चाहूँगा। कारण कि सूचीकरण में हस्तप्रत सम्बन्धी एक छोटी सी भी बात बड़ी महत्वपूर्ण होती है। पाठानुसन्धान मिलाने में पत्रांक व गाथांक दोनों महत्त्वपूर्ण बिन्दु हैं। इन दोनों के मिलने पर ही पाठ मिलाने हेतु विश्वस्त होते हैं। यहाँ पर प्रतिलेखक द्वारा दो भूलें पाई गई हैं- १. पत्रांक लेखन में भूल व २. गाथानुक्रमभंग पाठ उदाहरण।
१. पत्रांक लेखन में भूल- ध्यातव्य है कि हस्तप्रतों में प्रायः पत्र के B/आ भाग में पत्रांक लिखा मिलता है। पत्र का A/अ भाग प्रारंभिक पाठवाला अर्थात् पूर्ववर्ती व B/आ वाला भाग परवर्ती पाठ होता है। पूर्ववर्ती पाठवाले भाग में पत्रांक प्रायः नहीं लिखा होता है। क्वचित् ही किसी प्रत में यह क्रम फेरफार या अन्तर के साथ मिलता है। यही अवधारणा हस्तप्रत वाचकों के लिए परम्परा से प्राप्त एक नियम के रूप में प्रचलित है। प्रस्तुत प्रत में अपवाद रूप ठीक विपरीत रूप से पत्रांक व अनुसन्धान पाठ पाया गया है। ज्ञातव्य है कि पत्रांक-४५अ पर गाथा-२८८ से ३०२ अपूर्ण तक है जबकि ४५आ पर गाथा-२६३ अपूर्ण से २७६ अपूर्ण तक पाठ है। यहाँ पर गाथा-२८८ से ३०२ पत्रांक-४५आ पर होना चाहिए और गाथा-२६३ अपूर्ण से २७६ अपूर्ण ४५अ पर होना चाहिए। यह अनुक्रम होता तो वाचकों को पढ़ने के लिये योग्य और सरल होता । अतः पत्रांक-४५ गाथा-२८८-३०२वाले भाग पर लिखा जाना सही होता। ऐसी भूल ध्यान में आने पर सूचीपत्र में योग्य टिप्पण के द्वारा स्पष्ट करते हैं। जैसे कि-पत्रांक-४५ पत्र के अ भाग में लिखा है। पूरी प्रत में यदि यही स्थिति होती है या तो मात्र १ ही पत्र होने और उसमें भी यही स्थिति हो तो यह लिखा जाता है।
२. गाथानुक्रमभंग पाठ उदाहरण- प्रत में गाथांक भी है, गाथा के अनुसार पाठ भी चल रहा है। परन्तु पत्रांक-४५ के अ भाग का अधूरा पाठ ४५आ में मिलना चाहिए वह नहीं मिलता है। कारण कि गाथा-२७६ की आधी गाथा के बाद सीधे दूसरे भाग पर गाथांक-२८८ अंक में ही मिलता है। न ही २७६ का बाकी पाठ और न ही गाथांक-२८८ का पाठ। इस तरह पूर्व-पर पृष्ठ में किसी भी गाथा का अनुसन्धान पाठ किसी से मिलता नहीं है। जो क्रमशः गाथाएँ हैँ उसमें एक दूसरे की कड़ी में १२ गाथाओं का अंतर होता है। यहाँ वाचक भ्रमित होंगे के वास्तव में कहाँ से पाठ टूटा है। वाचक तो दूसरी प्रति, मुद्रित प्रति या अन्य कोई सन्दर्भ ग्रंथ से काम निकाल लेंगे, परन्तु सूचीकर्ता को सूचीकरण कार्य में ऐसे पाठ हेतु योग्य टिप्पण द्वारा स्पष्ट करना होता है। हस्तप्रत के छायाचित्र द्वारा वस्तुस्थिति देखने योग्य है। पत्र-४५अ का नीचला भाग एवं ४५आ का ऊपरी भाग दोनों देखें-
निष्कर्ष- अब भूल होने के कारण को बताया जा रहा है। प्रतिलेखक द्वारा पत्रांक-४५ पत्र के आ भाग पर ही लिखा गया है, परन्तु गाथांक-३०२ का अवशेष अनुसन्धान पाठ लिखने में भूल हूई है। यह पाठ इस प्रकार है-सिद्धे उवसंपन्नो अरिहंते केवली य भावेण। इत्तो एगतरेण वि पएण आराहओ होइ॥३०३॥ यहाँ आरा शब्द तक पाठ बिल्कुल सही है। मात्र हओ होइ लिखने की जगह भूलयुक्त पाठ गाथा-२६३ का अन्तिम दो पद (महव्वए पंच) व्वए पंच लिखे जाने से पुनः गाथाक्रम-२६३ से क्रमशः लिखा गया है। लेखन या वाचन में भूलवश किसी गाथा या श्लोक का अवशेष पाठ किसी और के साथ प्रमादवशात् या छद्मस्थादि अन्य कारणों से मिला देने से इस भूल भरे पाठ को असंचर दोष कहा जाता है।
ऐसे कुछेक कारणों से बड़े-बड़े रासादिक व चरित्र ग्रंथों में कभी-कभी गाथा/श्लोक परिमाण में अन्तर पाया जाता है। साद्यन्त पाठ निरीक्षण करने पर अन्तर और वास्तविक कारण ध्यान में आता है। ऐसे कार्यों को करने का सौभाग्य सूचीकर्ता और संशोधक को प्राप्त होता है। अगले अंक में पुनः एक नया लेख प्रस्तुत होगा।
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