एक दृष्टि में कृति परिचय : कृतिनाम– उत्तराध्ययनसूत्र की सुगमार्थ टीका। टीकाकार का नाम–पुण्यहर्ष के शिष्य वाचक अभयकुशल। टीका की भाषा–संस्कृत, कृति प्रकार–गद्य। विषय–आगमिक, ग्रंथाग्र–९२४३, रचना संवत्–व स्थल–अज्ञात। एकमात्र ही हस्तप्रत है। वर्त्तमान में उपलब्ध सूचना के अनुसार यह जानकारी दी गई है। सूचीकरण कार्यगत प्रत संपादनादि कार्यों में शुद्धि–वृद्धिपूर्वक प्रत सम्बन्धी सूचनाओं में परिवर्तन सम्भव है। कृति की मूल सूचनाएँ यथावत् रहेंगी।
प्रत परिचय– कोबा ज्ञानमन्दिर के हस्तप्रत भण्डार में उपर्युक्त कृति की एकमात्र प्रति है। प्रत संख्या-९३०७ पर यह प्रति है। सम्पादन-संशोधन कार्य में पाठान्तर, पाठवृद्धि, शुद्धाशुद्ध पाठादि जानने हेतु अन्य भण्डारों में शेष प्रतियाँ अन्वेषण करके पा सकते हैं। इस प्रत में मूलपाठ भी समाहित है। कुल पत्र संख्या-१७० है। यह प्रत पालणपुर में मयाचंद ऋषि के द्वारा संवत् १८०१ मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष तृतीया सोमवार को लिखी गई है। प्रत की भौतिक स्थिति अच्छी है। लिखावट सुन्दर व सुवाच्य है। प्रतिलेखक ने गुरुभ्यो नमः लिखकर लेखनकार्य प्रारम्भ किया है। कहीं-कहीं पाठ संशोधित, टिप्पण व पदच्छेदयुक्त है। अतः प्रत शुद्धप्राय प्रतीत होती है। प्रत का मूल ग्रन्थाग्रन्थ-२०६४ व टीका ग्रन्थाग्र-९२४३ है। अन्त में प्रतिलेखक ने प्रतिलेखन पुष्पिका इस प्रकार लिखी है-॥ संवत् १८०१ शाके १६६६ वर्षे मार्गशीर्ष शुदि तृतीयातिथौ सोमवासरे प्रल्हादनपुरनगरे वास्तव्य भूभामिनिभालस्थलतिलकायमानं ऋषि श्री५ कृष्णदासजी तत्पट्टे सरस्वतिकंठाभरण ऋ०श्री५ लीलाधरजी तस्यु शिष्य मुनि मयाचंद्रेण लिपिकृतं॥ पूज्य साधु-साध्वीजी भगवन्त संशोधन व प्रकाशन हेतु पत्र देकर इस प्रत की छायाप्रति पा सकते हैं। इस विषय में अन्य कोई जानकारी भी प्राप्त करना चाहे तो फोन, ईमेल, ह्वाट्स-अप, पत्र आदि माध्यमों से पूछताछ कर सकते हैं।
कृति परिचय– प्रस्तुत कृति आगमिक मूलसूत्र उत्तराध्ययनसूत्र की सुगमार्थ टीका है। इसके टीकाकार पुण्यहर्ष के शिष्य अभयकुशल है। मूल कृति की भाषा प्राकृत व टीका की भाषा संस्कृत है। यद्यपि उत्तराध्ययन सूत्र पर शान्तिसूरि की बृहद्वृत्ति, नेमिचन्द्र की सुखबोधावृत्ति, कमलसंयम की सर्वार्थसिद्धिटीका आदि बहुत सी टीकाएँ मिलती हैं, परन्तु यह टीका सरल-संक्षेपरूप टबार्थ-स्तबुकार्थरूपिणी मूलपाठानुसार मात्र विषयार्थप्रकाशिनी है। अतः टीकाकार ने सुगमार्थ टीका यथोचित ही नामकरण किया है। टबार्थ लेखनशैली में संस्कृत टीका बहुत कम मिलती है। प्रारम्भ में टीकाकार ने भक्तिपूर्वक पार्श्वनाथ भगवान, पुण्यहर्षप्रदाता ऐसे गुरुवर्य पुण्यहर्ष तथा सरस्वतीदेवी को प्रणाम करके मात्र स्तबुकार्थ उत्तराध्ययन की टीका शिष्यों के लिये रचना करने की बात कही है। स्वयं टीकाकार बताते हैं कि बहुत सी टीकाएँ विद्यमान हैं, उसमें सुगम अर्थवाली टीका मैं निर्माण कर रहा हूं। टीका अन्तर्गत प्रसंगोपात कथाएँ भी दी गई है। इस प्रकार मंगल, अभिधेय व प्रयोजन का स्पष्टीकरण किया गया है। टीका की प्रशस्ति अन्त में न होने से टीका का रचना संवत्, स्थल, टीकाकार की गुरुपरम्परा आदि सूचनाएँ अनुपलब्ध है। इनके द्वारा निर्मित ऋषभदत्त चौपाई की प्रशस्ति में उल्लिखित रचना संवत् १७३७ (मुनिगुणऋषिशशि) के आधार से इस टीका का रचना काल वि.सं. १८वीं तो अवश्य ही होगा। इनकी रचनाओं में इस टीका का क्रम किस सोपान पर है, यह संशोधन का विषय है।
टीकाकार वाचक अभयकुशल– यद्यपि टीकाकार ने टीका की प्रशस्ति नहीं दी है, प्रारम्भिक मङ्गलाचरण के प्रथम श्लोक में ही पुण्यहर्षप्रदातारं गुरुं श्रीपुण्यहर्षकम् के उल्लेख से स्पष्ट होता है कि ये पुण्यहर्ष के शिष्य थे। किस गच्छ व समुदाय के हैं, इनका सत्ता समय आदि का तो इस टीका से मालूम नहीं होता, किन्तु इनकी अन्य रचनाओं से स्पष्ट होता है कि ये किस गच्छ-समुदाय आदि के विद्वान है। कोबा ज्ञानमन्दिर में उपलब्ध इनकी रचनाओं में ऋषभदत्त चौपाई, विवाहपटलभाषा एवं जिनकुशलसूरि स्तवन समाहित है। सन्दर्भ ग्रन्थों के आधार पर चमत्कारचिन्तामणिवृत्ति, भर्तृहरिशतक बालावबोध आदि हैं। इससे सिद्ध होता है कि ये प्राकृत, संस्कृत व देशी भाषाओं के अपने समय के प्रतिभाशाली प्रसिद्ध विद्वान रहे होंगे। इनके द्वारा रचित ऋषभदत्त चौपाई में इन्होंने प्रशस्ति अन्तर्गत अपना पूरा परिचय दिया है, वह इस प्रकार है-
“श्री खरतरगच्छराजीयो ए, श्रीजिनचंदसूरीस। तेहने राजे संथुण्या ए, रिषभदत्त सुमुनीस॥ संवत मुनिगुणरिषिससि ए, फागुणमास उदार। उजवाली दसमीदिने ए, महाजननगर मझार॥ कीरतिरतनसुरिंदनीए, शाखा सकल वदीत। ललितकीरति पाठकवरु ए, साधुगुणे सुपवीत॥ तास सीस जगि परगडा ए, बहु विद्या भंडार। श्रीपुण्यहरष पाठक जया ए, तसुसी निधि लहि सार। अभयकुशल ए भाषीयो ए…वाधे मंगलमाल॥” इन पद्यांशों से स्पष्ट होता है कि ये खरतरगच्छीय गच्छपति जिनचंदसूरि के राज्य में इस ऋषभदत्त चौपाई की रचना संवत् १७३७ में महाजननगर में की। ये सुविदित कीर्त्तिरत्नसूरि शाखा के पाठक ललितकीर्त्ति के प्रशिष्य व पाठक पुण्यहर्ष के शिष्य हैं। अतः इनका सत्ता समय वि.सं. १८वीं का मध्य काल अवश्य ही माना जा सकता है।
उत्तराध्ययनसूत्र–सुगमार्थटीका का प्रारम्भिक श्लोकत्रय–
प्रणम्य परया भक्त्या, पार्श्वनाथं जिनोत्तमम् ।
पुण्यहर्षप्रदातारं, गुरुं श्रीपुण्यहर्षकम् ॥१॥
वाणीं चैव नमस्कृत्य, कुर्वे स्तवकार्थमात्रतः।
उत्तराध्ययनसूत्रस्य, टीकां शिष्यार्थमद्भुताम् ॥२॥
बह्वीष्वपि टीकासु, विद्यमानासु सत्स्वपि ।
सुगमार्थमयीं नूनं, वाचकाऽभयकौशलः ॥३॥
उत्तराध्ययनसूत्र–सुगमार्थटीका का अन्तिम पाठांश-शास्त्रमेतज्जगाद इति ब्रवीमि सुधर्मा जम्बूं प्रति॥॥ इति श्रीजीवाजीवविभत्ति छत्तीसमज्झयणं संमत्तं॥
वाचक व संशोधकों से नम्र निवेदन है कि इस कृति को संपादन-संशोधन के द्वारा ज्ञानयज्ञ में सहभागी होकर व श्रुतसेवा में हाथ बँटाकर जनहित हेतु उपकारी बनें। जैन शास्त्रों में आगम का स्थान प्रथम श्रेणि में आता है। क्योंकि, जिनेश्वर व गणधर भगवन्तों की वाणी ही जैन वाङ्मय है। इस टीका के प्रकाशन से वाचकों को एक नई टीका का दर्शन होगा। कुछ न कुछ नई जानकारी मिलेगी। आपकी जिज्ञासा की पिपासा को तृप्त करना ही हमारा लक्ष्य व ध्येय है। हमें आप अपना अमूल्य अभिप्राय अवश्य दें। अलमिति विस्तरेण, सुज्ञेषु किं बहुना।
आशा है पर्युषण महापर्व की सुन्दर भक्तिमय आराधना हुई होगी। इस वर्ष में लेखन, सिद्धान्तजन्य या किसी भी प्रकार से जिनाज्ञा विरुद्ध त्रुटि हुई हो तदर्थ त्रिविधे–त्रिविधे मिच्छा मि दुक्कडम्॥
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