कृति परिचय :-
आचार्य श्रीविजयदेवसूरिजी द्वारा करायेल चोवीश(२४) भगवानना गुणोने वर्णवती आ रचना छे। कृतिनी विशेषता ए छे के एक-एक गाथा द्वारा प्रत्येक परमात्मानी स्तवना कराई छे। कर्तानुं शब्दचयन, गुणस्तवना करवानी रीत, छंद, प्रास अने प्रस्तुति अन्य सामान्य देशी कृतिओ करतां विशेष अने थोडीक अघरी होय तेम जणाय छे। परमात्माना रूप, बळ, धैर्य, गांभीर्य, ज्ञानादि गुणो माटे स्वर्ण, चंद्र, सूर्य, नक्षत्र, मेरु, समुद्रादि उपमाओनुं योग्य जग्याए संयोजन थयुं होवाथी परमात्मानी स्तवना वधु रसाळ बनी छे।
कर्ता परिचय :-
प्रस्तुत कृतिना रचयिता आचार्य श्रीविजयदेवसूरि म. सा छे। आ विजयदेवसूरि प्रसिद्ध तपगच्छनायक छे के अन्य कोई, ते विषे संशोधन करवुं रह्युं। समय के गुरुपरंपरादि कोई संकेत प्रस्तुत कृतिमां जोवा मळतो नथी।
प्रत परिचय :-
प्रस्तुत कृतिनुं संपादन आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबानी प्रत क्र. १२४२५०ना आधारे करेल छे। प्रतना अक्षरो सामान्य छे। बन्ने बाजु २ पार्श्वरेखा, तेमज मध्यफुलिकायुक्त छे। पेटांक धरावती आ प्रतमां प्रथम पेटांके आ कृति छे। प्रतना १ पत्रमां २२ पंक्तिनो समावेश थयेल छे। आ प्रत वि.सं. १६८५ फा.सु. ८ शुक्रवारे कुमारगणि द्वारा मांडल नगरमां लखाई छे।
हस्तप्रत उकेलवा माटे समग्र मार्गदर्शन पूज्य गणि सुयशचंद्रविजय म.सा. तथा पूज्य सुजशचंद्रविजय म.सा.नी हुं आभारी छुं। संपादन माटेनी प्रस्तुत कृतिनी हस्तप्रत नकल आपवा बदल आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबाना व्यवस्थापकश्रीनो खूब आभार तथा संपादनमां सहाय करवा बदल पू. सा. श्री दीपयशाश्रीजी म.सा नी पण हुं खूब आभारी छुं।
२४ जिन नमस्कार
मंडित मुनि भेस तथापि विसेस, हरीरस रेस, सिखा सिरि धारी ।
अलक१ के अंत, पवन लहकंत, तप निरखंत, सुखी नरनारी ।।
लहि केवलन्यान, दिपइ जिउ भान, धरमधुरिदान मिथ्यामति वारी ।
रिषभ जिनराइ, तुम्हारे पाइ, रहउ लयलाइ, अवरको यारी ।।१।।
सोवनकी धात, दिपइ तोरी गात, तेजकी वात, कहंत न जाई ।
दिवाकर लक्ष, तपइ परतक्ष२, तथापि न दक्ष, प्रभासरि३ पाई ।।
गगनि नक्षत्र, अनेक जिअत्र, रवी तीहिं तत्र, कहा अधिकाई ।
अजित भगवंत, सदा सोभंत, नही मति अंत, अनंत कहाई ।।२।।
जतिहिं धर्म लोप तजे सोइ कोप, सदा जिन नोप, सोप परिजानइ ।
भविकजन आइ, नमइं नितु पाइ, सुनत बहु भाइ, तासु वखानइ ।।
सकर गुनवास, भव स्थिति तास, विंगति सुप्रकास, हेति चिति आनइ ।
संभव जिनराज, दुविध धर्म साज, भाउ धरि आज, नमत मन मानइ ।।३।।
अभिनंदन देउ, करउं नितु सेउ, जोरि कर बेउ, अवर मनरंगइ ।
प्रबल दुख रोग, चिंता चिति सोग, विविध सुवियोग कदापि न अंगइं ।।
भव संचित पाप, टरइ तसु व्याप, प्रकासति आप, जा प्रभु के संगइ ।
तउरे जन मूढ, मिथ्यामति गूढ, गर्व गज रूढ, जातका गंगइं ।।४।।
चंपक सुमजाति, पुहप४ बहु भाति, परिम्मल धाति, गंध मुह केरउ ।
तनिहिं नहीं सेद, वृध्धि विणु मेद, कदापि न खेद, अहइ अधिकेरउ ।।
भमर ज्यउ चित्त जिनणुरत्त, पाइ सुभ तत्त, चित्त प्रभु मेरउ ।
सुमति भगवंत, सिद्धि सुभकंत, सदा मुख संत, सेवक हउं तेरउ ।।५।।
उदयवरि सूर जासु सुमपूर, पलव अकूर, भजति तनु रातइं ।
खीर सुर सुरहिं, फेन वर जरहिं, राग लव विरहि रुहिर पल भातिइं ।।
अकर प्रभु रूप, अलक्ष५ सरूप, नमित नर भूप, विचारी तातइं ।
निराग जिनंद पद्मप्रभ चंद, आनि आनंद, नमउं सुवि भातिइं ।।६।।
जिनेस सुपास, सगुण आवास, सेवक जन आस, सदा प्रभु पूरइ ।
धरि दिढ धर्म, पाइ सब मर्म, असुभ कृत कर्म, मिथ्यामति चूरइ ।
कबही नही हास, सदा उदास, विषय विलास, रहे नितु दूरइ ।
नमउं कर जोरि, मान मद मोरि, पाप मति छोरि, उदिय तइं सूरइ ।।७।।
ससिक६ सम वान, शीत गुनि जान, उपम असमान करंक न कोई ।
कुमति मति राहि, ग्रसित नहीं आहि, नमउं नित ताहि, जोरि कर दोई ।
उदिप्त निसिदीस, नाहि लवकीस, मोर प्रभु पे मनि हारउं मोई ।
अखिल गुनग्राम, अवर सुख ठाम, चंद्रप्रभु नाम, जपत नित होइ ।।८।।
नवम जिन सुविधि, टारि सब अविधि, दिखावति सुविधि ग्यानबरि७ जानी ।
चरित थितिवाद, अपर विधिवाद, उसक अपवाद संकर चिति आनी ।।
विविध परिनेय, पाप सब हेय, धरम आदेय सुमति नीसानी ।
निछय ववहार, वचन सुविचार, दिखावति चार चार धर्मवानी ।।९।।
अमृत उनहार, चंद करवार, सुब्भ घनसार, सजन सुखदाई ।
जनम जर मरन, सोग दुःख हरन, सदा सुख करन, मुगतिपुरि पाई ।।
ताप तृष पूर, करति प्रभु दूर, पापतम चूर, चंदकी नाई ।
मोर प्रभ दसम, रमति रस नवम, कदापि न अवम, दिपइ अधिकाई ।।१०।।
देउ श्रेयंस विस्नुनृप हंस, गोत्र अवतंस, भविक सुखकारी ।
सुरासुर वृंद नाथ मुखचंद, देखि आनंद, लहंति दिहारी ।।
दयारस लीन, कदापि न दीन, तत्त सुभ तीन, कहति सुविचारी ।
समुद गंभीर, मेरु ज्यउं धीर, पाप रिपु वीर, चतुर चितहारी ।।११।।
रमा अरधगि८, रमति, मनरंगि, विषय सुखसंगि, देव सुइ रागी ।
कुमत कुजाप, करत बहु व्याप, संतोषी आप न कबही त्यागी ।।
गदा घनवान, करहि कम्मान९, अधिक विन्यान, दोष मति जागी ।
सुइ जानिकु देउ, लही धर्म भेउ, वासुपूज्य सेउ, करउं बइरागी ।।१२।।
विषय उनमादि, परे परमादि, भव स्थिति आदि, न जानइ कोऊ ।
करम संयोग, बने सब लोग, विना किय भोग, न छूटइ सोऊ ।।
पापथिति हरन, अपूरब करन, करी प्रभु सरन, पकचिति१० दोऊ ।
लहि दरसन न्यान, केवल सनमान, विमलजिन आन, धरइ जिय जोऊ ।।१३।।
सहस जिननाम, जिपउं सुखठाम, करउं परनाम, भारि कर जोरी ।
जिनगुन सार, करंत विचार, अनंत अपार, अहइ मति मोरी ।।
तथापि विशेष, भगतिकी रेख, चित्त करी लेख, लिखउं प्रभु तोरी ।
जिणिंद अनंत, रमति रस संत, करन गुन दंत देह अखोरी ।।१४।।
चारित श्रुत धर्म, दुविधपरि मर्म, देति शिवसर्म, दिखावति सबही ।
श्रावक मुनि रीत, सुहावति चीति, भवभय भीति, हरति कृत अबही ।।
नरक तिरिजंच, असुभगति संहरति परपंच, दुःखी नही कबही ।
धरमजिन अइस, हरइ दुःखलइस, भजइ ससि जइस कहति धर्म तबही ।।१५।।
मदन्मद चूरि, अदय उनमूरि, कजास न पूरि रहे रतिधारी ।
कमर कस नयन, विधु जस वयन, विरंछित मयन, जनम्म(म)नहारी ।।
अद्बुद अइस, दिपइं रवि जइस, हरइ तमलइस, विशेषि विदारी ।
वपु स्थित कंति, वनी११ वर भंति१२, जयउ जिन संति, सदा सुखकारी ।।१६।।
महाव्रत पंच, मेरुसम संच, धरति ओद्दव, विरति गुनधारी ।
कहावति कुंथु, अकर एह पंथु, तजति मद संथु१३, धरम अधिकारी ।।
शीर तप दानि, भाव परिमानि, धरम समजानि, भविकजन तारी ।
नमउं कुंथुनाथ, अचर सुख साथ, अवरजिय नाथ कुमतमति टारी ।।१७।।
जरधि जर खार, गंभीर अपार, करन दुत्तार, भरित जर चारी ।
लहरि परचंड, बीइ उदंड, करति सतखंड, पोत भर फारी ।।
ताहि सारीस चित्त सजगीस, अरजिन इस, कहउं कित बारी ।
सुरासुर सव्व, तजी मन गव्व, नमइ जब तव्व, दिढ व्रतधारी ।।१८।।
मिथलापुरी राइ, कुंभ जसु ताइ, प्रभावति माइं उदरि जिन जाए ।
वरिस बहु मानिं, अवधि परिमानि, निज कसम वानी, ठवन जिन ठाए ।।
पूरब भव मित्र, जानि सुचरित्र करण कलत्र, छहइ जब्ब आप ।
मल्ली निज रूप, दिखाइ सरूप, सुई सब भूप त[त]खिण समझाए ।।१९।।
चपर ज्यउं वाइ रहइ नहीं ठाइ देखत मइं जाइ मनोमत तुरिया ।
जिहां गज घट्ट, अखंड मरट्ट१४, मिलित भड घट्ट१५ तिहां नहु डरिया ।।
विषम बहु वट्ट, उच्च अर घट्ट, गेह वन हट्ट, भमत थिर धरिया ।
स्वामि सुव्रतधर्म चारित्र गुनिइं सुपवित्त, मुगति बहु वरिया ।।२०।।
मुतियगन मार फटिक उनहार१६, सारंग अधार, किरन्न समानी ।
सामिकी कित्ति, सदा मूं चित्ति, लहइ अति दित्ति, प्रेम परि आनी ।।
जगत प्रभु आन, करी सनमान, धरउं सिरि जान हुकम फूरमानी ।
नाथ नमि नमत, पाप अरिदमत, केवर गुम रमत, लहउं सुख वानी ।।२१।।
अइंचतको दंड, मुरारिक चंड, गरव किय खंड, महाबल जानी ।
अवर सउं प्रीति, करनकी रीति, दिखावति नीति, मधुर मधु वानी ।।
तिहां बहु भेख, दुखी जिय देखि, नेमि मनि रेख, धरमकी आनी ।
जोवन मदि मत्त, पेमरसि रत्त, तजी तिहि तत्त, रजीमति रानी ।।२२।।।
जसु पय अरविंद, नमइ नागिंद, नाथ धरनिंद, अपर पदमावति ।
आबार गोपार, लहंति विचार, महिम अति फार, जस ग्गुन गावति ।।
नीलुप्पल चंग, सरीर सुरंग, नमउ निज अंग, अनंग दिखावति ।
वामादेवी नंद, मनोहर चंद, अनंद अमंद पेखि, मन पावति ।।२३।।
सहस इकवीस, वरस निसिदीस, धरम स जगीस, जस जगी आहइ ।
जयहु तसु नाम, अतिहि अभिराम, अचर सिवठाम, जतउ जिय चाहइ ।।
अभय दिय दान, वीर वर्धमान, अतुल तुम्ह आन, धरउं मनमाहइ ।
श्री विजयदेवसूरि भनइ, सुखपूरिं, दुरित दुखचूरि, कहावत काहइ।।२४।।
चउवीसइ जिनराय भाइ वंद करजोरी, नाम जपउं नित तास ।
पास बहु कुमति विछोरी, पेखी प्रभु प्रतिरूप, चित्ति संतोषि निहारी ।।
द्रव्य भाव निक्षेप चतुरविध नमउ दिहारी ।
श्री विजयदेवसूरिंद गुरू भविक लोक प्रतिइं युं कहइ ।
जिननाथ चरम नर जो नमइ, बोधिबीज फल सो लहइ ।।२५।।
।। इति श्री चतुविंशति जिन नमस्काराः ।।
शब्दकोश
१. अलक- केश, २. परतक्ष-साक्षात्, ३. प्रभासरि-तेजरूपी लक्ष्मी, ४. पुहप-पुष्प, ५. अलक्ष-अलक्ष्य, ओलौकिक, ६. ससिक-चंद्र, ७. ग्यानबरि-ज्ञानबळे, ८. अरधगि- अर्धांगना, ९. कम्मान-?, १०. पकचित्ति- ?, ११. वनी-थई, १२. भंति- भाते, प्रकारे, १३. संथु-साथ?, १४. मरट्ट-गर्व, १५. भड घट्ट- घणा सुभट? १६. उनहार- समान?
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