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ज्ञातपुत्र महावीर और निगण्ठ नातपुत्त के संदर्भ में बौद्ध ग्रन्थों की समीक्षा

आचार्य अजयसागरसूरि एवं

गजेन्द्र शाह

आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा

 

Abstract

महावीरस्वामी की प्राचीनता एवं कालगणना आदि के लिए विश्व के विद्वानों की दृष्टि विविध प्रमाणों के साथ समकालीन माने जा रहे बौद्ध ग्रन्थों पर भी रही है। बौद्ध ग्रन्थों में तत्कालीन विचरण कर रहे धर्माचार्यों, शास्ताओं, तीर्थंकरों के रूप में महात्मा बुद्ध के अलावा अन्य छः नामों का उल्लेख मिलता है, यथा पूर्ण कस्सप, मंखली गोशालक, अजित केशकम्बली, पकुध कच्चायन, संजय वेलट्ठिपुत्त, निगण्ठ नातपुत्त। इनमें से निगण्ठ नातपुत्त को महावीरस्वामी मानकर आज के विद्वानों के द्वारा तुलना की जाती रही है और उसे कालगणना हेतु बड़े आधार के रूप में लिया जा रहा है।

यहाँ सबसे पहले यह निश्चित कर लेना जरूरी हो जाता है कि सही में क्या बौद्ध ग्रन्थों में उल्लेखित निगण्ठ नाटपुत्त का व्यक्तित्व, उपदेश, सिद्धान्त, आचार, आदर्श एवं मार्ग जैनागमों में कहे गए महावीरस्वामी के व्यक्तित्व, उपदेश, सिद्धान्त, आचार, आदर्श एवं मार्ग के साथ तुलनात्मक रूप से संबंध रखते हैं? क्या बौद्ध ग्रन्थों के द्वारा चित्रित किया गया महावीरस्वामी का स्वरूप साम्प्रदायिक्त व्यामोह से रहित एवं तटस्थरूप से किया गया है? महावीरस्वामी के व्यक्तित्व का वर्णन क्या जैनागमों में कथित महावीर के स्वरूप एवं सिद्धान्तों की पूर्ण एवं योग्य जानकारी लेकर किया गया है कि, बाहर से सुनी-सुनाई बातों के आधार पर किया गया है? या फिर बौद्ध ग्रन्थों में वर्णित निगण्ठ नातपुत्त महावीरस्वामी न होकर कोई और ही पात्र है?

कालगणना एवं धर्मों की प्राचीनता जैसे ऐतिहासिक निर्णयों के लिए आधारभूत मानी जाने वाली बातों के आधार को पहले परख लेना जरूरी हो जाता है। बौद्ध ग्रन्थों में महावीरस्वामी के संदर्भ में किये गए निवेदनों के पीछे की आधारशिला, उद्देश्य एवं वास्तविकता क्या है उसे बहुत ही बारीक तीक्ष्ण तर्कों की नोंक पर परखा जाए, ऐसा ही नहीं, लेकिन एक आम आदमी की, जन सामान्य की सोच एवं बुद्धि के आधार पर भी एकबार परख लिया जाए तो भी पता चल सकता है कि बौद्ध ग्रन्थों के निवेदनों के पीछे का तथ्य क्या है? उद्देश्य क्या है? वास्तविकता से कितने नज़दीक है और उन्हें बड़े ऐतिहासिक निर्णयों के लिए कितना विश्वस्त माना जा सकता है? आदि। जब तक इनका सही निर्णय नहीं कर दिया जाता है, तब तक सारी अवधारणाएँ, सारी तुलनाएँ, सारी कालगणना या मूल्यांकन, प्रश्नों के कटघरे मे ही रहेंगे। 

हमनें प्रस्तुत लेख में उनको ही परखने का तथा उजागर करने का प्रयास किया है। बौद्ध ग्रन्थों में निगण्ठ नाटपुत्त का (नातपुत्त, नाथपुत्त, आदि विकल्पों के साथ) कितनी बार उल्लेख हुआ है और जैनागमों में उसका कोई उल्लेख है या नहीं? जैनागमों के महावीर से बौद्ध ग्रन्थ सूचित महावीर की तुलना बैठती है या नहीं, यदि नहीं बैठती है तो हमें इन निवेदनों को महावीर की कालगणना आदि के लिए कितने आधारभूत मानने चाहिए? आदि प्रश्नों पर विचार किया है। 

बौद्ध ग्रन्थों में ५१ जगहों पर स्वतंत्र निगण्ठ या निगण्ठ नाटपुत्त का उल्लेख प्राप्त होता है। सभी का उल्लेख और समीक्षा विस्तारभय से यहाँ प्रस्तुत न करके उनमें से महत्वपूर्ण कहे जा सकने वाले ६ प्रसंगों को हमनें लिया है और प्रत्येक प्रसंग के बाद उसकी जैनागममान्य बातों के साथ तुलना करते हुए आगमिक पाठों के साथ समीक्षा की है, जिससे वाचकों को प्रत्येक प्रसंग का स्पष्टीकरण मिले और बौद्ध त्रिपिटिक सम्मत निगण्ठ नातपुत्त एवं ज्ञातपुत्र महावीर के बीच की भेदरेखा को आसानी से समझा जा सके। महावीरस्वामी के व्यक्तित्व की वास्तविकता से बौद्ध ग्रन्थ कितने नज़दीक और कितने दूर है, उसे जाना जा सके। हम आशा करते हैं कि यह लेख विद्वान वाचकों को सही निर्णय करने के लिए योग्य दिशानिर्देश करने वाला बनेगा। 

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बौद्ध ग्रन्थों में निगण्ठ नाटपुत्त के उल्लेख- 

बौद्ध ग्रन्थों में कई जगह निगण्ठ नाटपुत्त, निगण्ठ नाथपुत्त, निगण्ठ नातपुत्त जैसे नामों के लगभग ५१ जितने उल्लेख प्राप्त होते हैं। जिसका विस्तार से वर्णन मुनि श्री नगराजजी की पुस्तक आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन, खण्ड- १में किया गया है। इस पुस्तक में पंडित श्री सुखलालजी संघवी ने एक अवलोकन में लिखा है कि- समग्र बौद्ध-साहित्य में ऐसे ५१ समुल्लेख प्राप्त होते हैं, जिनमें बत्तीस तो मूल त्रिपिटकों के हैं, मज्झिम निकाय में दस, दीघ निकाय में चार, अंगुत्तर निकाय व संयुत्त निकाय में सात-सात, सुत्त निपात में दो एवं विनयपिटक में दो संदर्भ प्राप्त होते हैं। इन समुल्लेखों में विविध विषयों पर बुद्ध व निर्ग्रन्थो के बीच की चर्चाएँ, घटनाएँ व उल्लेख हैं।

हमनें बौद्ध ग्रन्थों में रहे विस्तृत प्रसंगों को संपूर्णरूप से न लेते हुए उपयोगी आवश्यक अंशों को अपनी भाषा में उतारा है और उसकी समीक्षा जैनागमों एवं जैन सिद्धांतों का अवलोकन करते हुए हमारी जानकारी के अनुसार प्रामाणिकरूप से शास्त्र पाठों के साथ करने का नम्र प्रयास किया है।

प्रस्तुत लेख में लिए गए प्रसंग विनयपिटक, धम्मपद, संयुत्त निकाय, दीघ निकाय, मज्झिम निकाय, इन बौद्ध ग्रन्थों के आधार पर है। विस्तारभय से सभी प्रसंगों को न लेते हुए यहाँ महत्वपूर्ण कहे जा सकने वाले ६ प्रसंग प्रस्तुत किये जाते हैं, इससे भी विद्वान वाचकों को पढ़ते ही ख्याल आ सकेगा कि वास्तविकता क्या है। 

  • 1. सिंह सेनापति- (विनयपिटक महावग्ग, ६ भैषज्य खन्धक, १९ सीहसेनापतिवत्थु तथा अंगुत्तर निकाय, ८ अट्ठकनिपातो, २ महावग्ग, २ सीहसुत्त के आधार से)

प्रसंग- सिंह सेनापति निगण्ठ नाटपुत्त के उपासक थे। प्रतिष्ठित लिच्छवीओं के मुख से बौद्धधर्म का गुणोत्कीर्तन सुनने पर बौद्धधर्म से प्रभावित होकर निगण्ठ नातपुत्त के पास आए और बुद्ध के पास जाने की भावना दर्शाई। निगण्ठ नाटपुत्त ने कहा कि तुम क्रियावादी होते हुए भी अक्रियावादी श्रमण गौतम के दर्शनार्थ को जाओगे? वह तो श्रावकों को अक्रियावाद का ही उपदेश करता है। ऐसा दो बार होने पर तीसरी बार सिंह सेनापति बिना पूछे ही गौतमबुद्ध के पास चला जाता है। नातपुत्त के कहे अक्रियावाद के विषय में उन्हें कहता है, तब बुद्ध जवाब में कहते हैं कि हाँ मैं अक्रियावादी हूँ और साथ साथ अपने आपके के लिए “अक्रियावादी- inaction- निष्क्रियता, क्रियावादी- action- क्रिया, उच्छेदवादी-annihilationism-सर्वनाशवाद, जेगुच्छी-disgust- घृणा, वेनयिक-extermination-तबाही, तपस्सी-mortifier-नीचा दिखाना, अपगब्भो-immature-अपरिपक्व, अस्सासको-ambitious- महत्वाकांक्षी” इन सब अन्य विशेषणों का भी यह कहकर स्वीकार करते हैं कि, इन सब प्रकार से विविध अच्छाइयों का समर्थन करने वाले एवं बुराइयों को दूर करने वाले आदि स्वरूपों में भी में मेरा स्वीकार करता हूँ। उनसे इस तरह का धर्मश्रवण करके सिंह उनका मतानुयायी हो जाता है।

समीक्षा– प्राचीन जैन आगमसूत्रों में महावीर से बौद्ध में और बौद्ध से महावीर के मत में आने-जाने के किसी भी पात्र या प्रसंग का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है, और न ही सिंह सेनापति नामक किसी पात्र का कोई उल्लेख मिलता है। हाँ, अन्य मतों से महावीर के मत में आए हों ऐसे अंबड परिव्राजक जैसे उदाहरण अवश्य मिलते हैं।

जैन आगमों में क्रियावाद, अक्रियावाद आदि अनेक मतों की उनके सम्यक् मिथ्या आदि भेद प्रभेदों के साथ भी विस्तार से चर्चा आती है। मूल अंग आगमों में आत्मा आदि के अस्तित्व का सम्यक् स्वीकार करके उस हेतु तप त्याग आदि करने वाले क्रियावादी के रूप में जैन मत को बतलाया है। जब कि, आत्मा आदि को नहीं मानने वाले मतों को अक्रियावादी की श्रेणी में रखा है। यहाँ पर बुद्ध क्रियावाद एवं अक्रियावाद आदि का जो भी स्वरूप स्वयं के लिए इष्ट बता रहे हैं, वह सारे स्वरूप तो महावीर को भी पूर्णतः इष्ट ही रहे। इसका प्रमाण है कि सारे जैन आगमों में महावीर के जो भी उपदेश मिलते हैं उन सब में प्रचुरता से इसी तरह की ही सारी बातें बहुत ही भार पूर्वक कही हुई मिलती हैं। जैन साहित्य का थोड़ा सा भी ज्ञान रखने वालों के लिए यहाँ पर इन सब हेतु कोई प्रमाण देने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है। यह निश्चित है कि यहाँ पर महावीर के क्रियावाद एवं अक्रियावाद किसी को भी उसके सही अर्थों में नहीं बताया गया है। 

यहाँ स्वाभाविक ही प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि महावीरस्वामी बुद्ध की क्रियावाद आदि इन सब व्याख्याओं के साथ यदि सम्मत नहीं थे, जैसा कि यहाँ पर प्रस्थापित हो रहा है, तो क्या महावीर दुर्गुणों को बढा कर सद्गुणों को दूर करने के पक्षधर थे? बात मूल से ही संगत नहीं है।

  • 2.  गृहपति उपालि- (मज्झिम निकाय, ६ उपालि सुत्तं के आधार से)

प्रसंग- गृहपति उपालि आदि गृहस्थों की पर्षदा के बीच निगण्ठ नातपुत्त बैठे हुए थे तब नातपुत्त के शिष्य दीर्घ तपस्वी कायदंड एवं पापप्रवृत्ति के बीच के संबंध में बुद्ध से चर्चा करके आए एवं नातपुत्र को बताया गौतम बुद्ध कायदंड को नहीं मानते बल्कि कायकर्म को मानते हैं एवं पापप्रवृति के लिए तो मनकर्म को ही प्रमुख गिनाते हैं ना कि कायकर्म को। यह सुन वहाँ पर उपस्थित उपालि गृहपति आवेश के साथ बुद्ध के पास वाद हेतु जाने के लिए निगण्ठ नातपुत्त से अनुमति लेते हैं। तब वहाँ रहे दीर्घ तपस्वी कहते हैं कि वहाँ उपालि का काम नहीं है, वह आवर्तनी-माया से इस की मति फेर लेगा एवं वह उनके मायावी पक्ष में चला जाएगा। तब निगण्ठ नातपुत्त कहते हैं कि ऐसा नहीं होगा, फिर उपालि जाता है। उपालि दीर्घ तपस्वी के साथ हुए उनके संवाद के विषय में बात करता है। बुद्ध विविध युक्तिओं एवं उदाहरणों से मनकर्म की महत्ता बताते हैं एवं नातपुत्त के स्वयं के मत में विरोधाभास को बताते हैं। इस वाद में उपालि बुद्ध के तर्कों से पराभूत और अभिभूत होकर उनका मतावलंबी हो जाता है। 

दीर्घ तपस्वी को पता चलने पर वह निगण्ठ नातपुत्त से कहते हैं कि, उपालि तो बौद्ध हो गया है। फिर भी निगण्ठ नातपुत्त कहते हैं कि ऐसा हो ही नहीं सकता है, तब दीर्घ तपस्वी कहते हैं कि मैं स्वयं उनके घर जा कर निश्चय कर आता हूँ। फिर उपालि के घर जाने पर द्वारपाल उस दीर्घ तपस्वी को रोकते हैं और कहते है कि अब उपालि निगण्ठों के उपासक नहीं रहे, बौद्ध श्रावक हो जाने से निगण्ठों को अंदर आने से मना किया गया है। फिर दीर्घ तपस्वी यथार्थ बात का निश्चय कर के निगण्ठ नातपुत्त के पास आते हैं और कहते हैं कि वह सही में बौद्ध मतावलंबी हो गया है। तब निगण्ठ नातपुत्त कहते हैं कि ऐसा हो ही नहीं सकता है, मैं स्वयं उसके घर जाकर पता लगाता हूँ और वे स्वयं उनके घर जाते हैं पर उन्हें भी रोका जाता है। जिनके आग्रह से उपालि बिचली द्वार-शाला में अभी तक जिस उच्च आसन पर बड़े आदर सम्मान के साथ नातपुत्त को बैठाता था, उस आसन पर स्वयं बैठता है और निगण्ठ नातपुत्त को अंदर आने देने हेतु द्वारपाल को अनुमति देता है। निगण्ठ नातपुत्त के अंदर आने पर उपालि पूर्व की तरह उन्हें आदर नहीं देता है। नातपुत्त कहते हैं कि, बुद्ध ने आवर्तनी-माया से तेरी मति फेर दी है। तब उपालि कहता है कि यदि ऐसा है तो यह आवर्तनी-माया कल्याणी है एवं मैं तो चाहता हुँ कि, विश्व में सभी की मति ऐसी ही हो जाए। साथ ही कहता है कि आपकी तो बात बिलकुल बालक अज्ञानियों वाली है, अतः समीक्षा योग्य भी नहीं है। बुद्ध की बातें पंडितो वाली है, अतः उन पर विमर्श हो सकता है। अंत में उपालि श्रमण गौतम की दिशा में हो कर बुद्ध की अनेक गाथाओं से स्तवना करते हुए स्वयं को उन्हीं का श्रावक बतलाता है। निगण्ठ नातपुत्त को भगवान् बुद्ध का यह सत्कार सहन नहीं हो पाया एवं वहीं अपने मुँह से गर्म लोहू उगल दिया। टीकाकार तो इसी बात को और आगे ले जाकर कहते हैं कि निगण्ठ नातपुत्त को उस मलीन हालत में ही उठाकर उस बालक नाम के स्थान से ठेठ पावा नाम के स्थान तक ले जाया गया। वहाँ कुछ ही समय में उनका देहांत हो गया।

समीक्षा– महावीरस्वामी का उपालि नाम का कोई वरिष्ठ उपासक जैनागमों में उल्लिखित नहीं है। यहाँ निगण्ठ नातपुत्त के नाम से कर्मबंध में मात्र कायदंड की ही प्रधानता की बात महावीरस्वामी के कर्म सिद्धांत के साथ बड़े ही गलत ढंग से जोड़ दी गई ऐसा दिखाई दे रहा है। 

तथ्य यह है कि, जैन आगमों के अनुसार कर्मबंध के लिए सबसे महत्वपूर्ण यदि कोई कारण है तो वह है मन के परिणाम (भाव), कर्मबंध में काया की भूमिका बड़ी ही सीमित हैं। काया में होने वाले हलन-चलन से आत्मा में जो स्पंदन उत्पन्न होते हैं उसे काययोग कहा जाता है। काययोग से जीव कार्मण वर्गणा के पुद्गल-परमाणुओं को अपनी ओर आकर्षित कर कर्म का मात्र प्रदेश (परमाणुओं से) बंध करता है। प्रदेश बंध की अपनी कोई शक्ति नहीं होती, अतः वह अपने बलबूते पर जीव को सुखी-दुखी करने में कोई योगदान नहीं देता है। जीव को सुखी-दुखी करे ऐसी शक्ति कर्म परमाणुओं में लानेवाला बंध तो क्रोध आदि चार कषाय एवं कृष्ण आदि छः लेश्या के माध्यम से होने वाला कर्म का ज्ञाणावरणीय, वेदनीय आदि प्रकृतिबंध, कम या ज्यादा समय तक कर्म का फल रहेगा वह तय करवाने वाला स्थितिबंध एवं तीव्र, मध्यम आदि मात्रा में कर्म फल की तीव्रता का निर्णायक रसबंध ही है। प्रकृति स्थिति एवं रसबंध को करवाने वाले कषाय एवं लेश्या मन के विचारों एवं भावों से आत्मा में होने वाले तथा प्रकारक स्पंदन रूप एवं मन के तथा प्रकारक अध्यवसाय परिणाम रूप मनोयोग के अंदर समाविष्ट होते हैं। अतः यह स्पष्ट है कि कर्मबंध में मन ही महत्वपूर्ण है। इसीलिए यह कहा गया है कि “क्रियाए कर्म” यानी काया की हलचल रूप क्रिया से जीव के साथ कर्म के पुद्गल सचिंत होते हैं, जब कि “परिणामे बंध” यानी कि मन के परिणामों (भावों) से शुभ-अशुभ फल देने वाले कर्मों का बंध होता है। यह नियम तो नहीं है, लेकिन फिर भी यह स्पष्ट है कि सामान्यतः मन-वचन-काया यह तीनों योग एक दूसरे पर गहरा असर रखते हैं। अतः कोई भी एक योग अशुभ-अप्रशस्त होता है तब शेष दो भी बहुधा उससे प्रभावित हो ही जाते हैं। भगवती सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, सूत्रकृतांग सूत्र आदि आगम एवं पंच संग्रह, कम्मपयडीप्रशमरति आदि ग्रंथों में कर्म सिद्धांत की पूरे विस्तार के साथ सही समझ दी हुई है। 

जैन आगमों में “दंड” शब्द का प्रयोग मन-वचन-काया के अपने-अपने तरीके के अशुभ अप्रशस्त योगों से होने वाले पाप कर्म के बंध से जीव को पीडा-बाधा आदि स्वरुप जो दंड भुगतना पडता है, उसे बताने के लिये हुआ है। तंदुलमत्स्य, प्रसन्नचंद्र राजर्षि आदि शारीरिक रूप से कुछ भी किये बिना मात्र मन के संकल्पों से ही नरक योग्य कर्मों को संचय करने वाले जीवों के कई दृष्टांतों के द्वारा भी प्रस्थापित है कि पाप कर्म के बंध में काया से वैसी हिंसक प्रवृत्ति बिलकुल न होने के बावजुद भी मात्र मन के हिंसक भावों के माध्यम से जीव सातवीं नर्क तक के पाप कर्म का उपार्जन तय कर लेता है। जबकि “प्रमत्तयोगात् कायव्यपरोपणं हिंसा” तत्त्वार्थ सूत्र के इस सूत्र के द्वारा यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि कर्मबंध के विषय में कायचेष्टा से होने वाली बाह्य हिंसा मात्र के बदले उस समय जीव का मनोयोग रूप प्रमत या अप्रमत होना ही निर्णायक है। प्रमत को ही काययोग से होने वाली हिंसा में पाप का विशेष बंध है, अप्रमत को नहीं। इन दृष्टांतों से भी तय होता है कि कर्मबंध में काययोग की जगह मनोयोग की प्रधानता जैनागमों में प्रसिद्ध ही है। 

हम देख सकते हैं कि यहाँ बौद्ध ग्रंथ में निगंथ नातपुत्त के नाम से कायदंड तथा मनोदंड को लेकर जिस प्रकार की बातें बतलाई गई वैसा कुछ भी जैन आगमों में बिलकुल ही नहीं मिलता है। बल्कि, जैसा बुद्ध कह रहे हैं वही बात जैन आगमों में खूब ही ज्यादा गहराई और इतनी ज्यादा गिनती-हिसाब के साथ मिलती है कि वैसा अन्यत्र कहीं पर भी देखने में नहीं आता। 

वैसे यह संभव तो नहीं है, फिर भी थोडी देर के लिए मान लें कि उपालि गृहस्थ होने से एक बार जैन सिद्धांतों का सही जानकार न भी हो, परंतु दीर्घ तपस्वी तो वरिष्ठ साधु होने से अवश्य ही जानकार रहे होंगे। उन्होंने भी कर्मबंध की महावीर संमत उपरोक्त व्याख्या बुद्ध को न बताई हो ऐसा नहीं हो सकता। जब कि ऐसी कोई बात यहाँ पर आ ही नहीं रही है। साथ ही उन्होंने बुद्ध के द्वारा बताई गई इन व्याख्याओं के साथ भी महावीर के मत को आपत्ति न होना भी अवश्य बताया होता एवं यही सारी बातें उन्होंने महावीरस्वामी के समक्ष भी रखी होतीं। जब कि यहाँ बात कुछ अन्य ही तरीके से प्रस्तुत हुई है। 

महावीरस्वामी का समग्र जीवन एवं उनके उपदेश बोधयुक्त, ममत्वमुक्त एवं वैराग्य से भरपूर हैं, वहाँ अनुयाईयों को ले कर इस तरह की खींचातानी की कोई बात नहीं हो सकती है। जब गोशालक मंखलीपुत्र महावीर पर तेजोलेश्या का प्रयोग करने हेतु आया था, तब भी महावीरस्वामी ने उसका तिरस्कार नहीं किया था, बल्कि सब साधुओं को कह दिया था कि कोई उसके साथ विवाद न करें और दूर चले जायें। इसी तरह संगम देव द्वारा छद्मस्थ अवस्था (केवल ज्ञान प्राप्ति के पूर्व की साधना अवस्था) में भी लगातार ६ मास तक उपसर्ग-यातनाओं करने के बावजूद भी महावीर ने उसकी आत्मा की हितचिंता ही की थी। वेदवादी गौतम ब्राह्मण अत्यंत अभिमान के साथ उनके पास आने पर उन्होंने उनसे भी शांत एवं सम्मान युक्त प्रतिबोध कारक भाषा में ही संवाद किया था। यदि महावीर को सम्प्रदाय का व्यामोह होता तो वेदों को गलत दर्शाते, जब कि महावीर ने वेदों को गलत न दर्शाते हुए उनके वाक्यों के सही अर्थ करके इन्द्रभूति गौतम की परस्पर विरोधाभासी दिखने वाले वेद वाक्यों की समझ को ही सही किया था। महावीरस्वामी के निर्वाण के पूर्व का समय जैसा कि यहाँ पर खून उगलने के बाद कुछ ही समय में होने का बताया है वैसे कोई बात जैनागमों में अंश मात्र भी उपलब्ध होती नहीं है। कल्पसूत्र आदि जैन आगमों के अनुसार महावीरस्वामी का निर्वाण अंत समय में निरंतर 16 प्रहर की धर्मदेशना-उपदेश देते हुए अत्यंत समाधिमय हुआ था।

बुद्ध ग्रंथ के इस प्रसंग के कथन में तो महावीर की जैन आगमों में सर्वत्र बताई गई उनकी वीतरागता का मूल ही खत्म कर दिया गया है। महावीर के द्वारा आगमों में दिए गए उपदेशों का तो यहाँ कोई अंश मात्र भी नज़र नहीं आता है। खुद के भक्त द्वारा सरेआम खुद का पराभव देख कर मानों मर्माहत महावीर का रक्तचाप इतना बढ गया कि उनकी नसें फट गई एवं उनके मुँह से खून की उल्टी हो जाने तक की बात यहाँ कह दी गई है। इस तरह की बातें कह कर यह प्रसंग लिखने वालों ने महावीरस्वामी को अत्यंत इर्ष्यालु, अनुयाईयों के प्रति अत्यधिक आसक्त एवं किसी की भी चेतावनी को न सुनने वाले ऐसे अति आत्मविश्वास वाले, ममत्त्वभाव से भरे ऐसे गरीमा विहीन कक्षा के व्यक्तित्व वाले के रूप में दर्शाने का काम किया है। वह भी इतनी हद तक कि जो एक आम आदमी में भी न हो। 

  • 3. अनाश्वासिक ब्रह्मचर्य-वास (मज्झिम निकाय, सन्दक सुत्तन्त, २-३-६ के आधार से)

प्रसंग- कौशाम्बी की प्लक्ष गुहा में पाँच सौ परिव्राजकों के साथ रहे सन्दक परिव्राजक को गौतमबुद्ध का श्रावक आनंद मिलता है और चार प्रकार के अब्रह्मचर्य-वास और चार अनाश्वासिक ब्रह्मचर्य-वास की बात करता है। अब्रह्मचर्य के चार प्रकारों का विवेचन करते हुए आनन्द ने क्रमशः अजित केसकम्बली, पूरण कस्सप, मङ्खली गोशालक और पकुध कच्चायन के मतवादों का उल्लेख किया और उन्हें ही उक्त अब्रह्मचर्य-वासों में गिनाया। 

चार अनाश्वासिक ब्रह्मचर्य-वास के चार प्रकारों में से प्रथम प्रकार में निगण्ठ नातपुत्त के मतवाद की बात कही। उसमें कहा कि- यहाँ एक शास्ता ऐसा है, Idha, sandaka, ekacco satthā sabbaññū जो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अशेष ज्ञान-दर्शनयुक्त होने का अधिकारपूर्वक कथन करता है। उसके अनुसार उसे चलते, ड़े, सोते, जागते सदा-सर्वदा ज्ञान प्रत्युपस्थित रहता हैतो भी वह सूने घर में जाता है और वहाँ भिक्षा नहीं पाता। उसे कुक्कुट भी काट खाता है। चण्ड हाथी, चण्ड घोड़े और चण्ड बैल से भी उसका सामना हो जाता है। सर्वज्ञ होने पर भी वह स्त्री-पुरुषों के नाम-गोत्र पूछता है, ग्राम निगम का नाम और मार्ग पूछता है। जब उनसे यह पूछा जाता है कि सर्वज्ञ होकर आप आपके इस व्यवहार के विषय में क्या कहते हैंतो वे प्रारब्ध थाउस तरह का उत्तर देते हैं सन्दक ! विज्ञ पुरुष का तब यह चिन्तन उभरता है कि जहाँ शास्ता ऐसे दावा करते हैं, वहाँ ब्रह्मचर्य-वास अनाश्वासिक (अर्थात् वह सन्यास तो है, पर निर्वाण का आश्वासन देने वाला नहीं) है और उससे उसका मन उदास होकर हट जाता है। यह प्रथम अनाश्वासिक ब्रह्मचर्य-वास है।

समीक्षा- यहाँ जो कुक्कुट के काटने आदि की बातें कही हैं, जैनागमों में महावीर के बारे में कहीं भी ऐसा प्रसंग नहीं आता है। स्त्री-पुरुषों के नाम-गोत्र पूछने जैसी सर्वज्ञताबाधक बातें जैनागमों में कहीं पर भी नहीं है। उससे विपरित सर्वज्ञता को पुष्ट करने वाले कई प्रसंग प्राप्त होते हैं, यथा- इन्द्रभूति गौतम महावीर के केवलज्ञानप्राप्ति के बाद जब सर्वप्रथम उनसे मिले तब बिना पूछे ही महावीरस्वामी ने उन्हें नाम-गोत्र सह संबोधित किया था। इनके मन में रहे प्रश्न को बिना पूछे ही जान लिया था और उत्तर दे दिए थे। जिससे इन्द्रभूति विस्मित हो गए थे। उतना ही नहीं इन्द्रभुती के पीछे आए अन्य १० ब्राह्मणों के भी मनोगत प्रश्नों को बिना पूछे ही जानकर उत्तर दे दिए थे, जो कि महावीरस्वामी के पास दिक्षित हो कर उनके ११ गणधरों के रूप में दीक्षित हुए। इस प्रकार बौद्ध ग्रन्थ की बात यहाँ संगत नहीं अपितु विपरीत सिद्ध होती है।

सर्वज्ञ होने के बाद महावीरस्वामी को भिक्षा लेने जाने के विषय में जैनागम मान्यता नहीं देते हैं। उनके शिष्य ही भिक्षा हेतु जाते हैं, अतः भिक्षा नहीं मिलने वाली बात भी जैनागम के महावीर से विपरित है। कैवल्य प्राप्ति के बाद महावीरस्वामी को चंड घोड़े, चंड हाथी या चंड़ बैल का सामना या इस प्रकार का उपसर्ग होने की कोई बात जैनागमों में उपलब्ध नहीं है। यहाँ वर्णित पात्र निगण्ठ नातपुत्त को यदि महावीरस्वामी मानते हैं तो बौद्ध ग्रन्थ नें उन्हें ज्ञानविहीन दर्शाने का प्रयास किया, ऐसा सिद्ध होता है। 

  • 4. चंदनपात्र का प्रसंग- (विनय पिटक-चुल्लवग्ग- ५ खुद्दकवत्थुक्खन्धकं- ५ पिण्डोल भारद्वाज पत्तवत्थु, के आधार से)

प्रसंग- राजगृह नगर के एक श्रेष्ठी को एक चन्दनसार की चन्दन गाँठ मिली। सेठ ने सोचा कि इसका पात्र बनवा दूँ, चूर्ण मेरे काम आएगा और पात्र दान कर दूँगा। पात्र तैयार हो जाने के बाद सेठ ने उसे सींके में रखा, उस सींके को एक पर एक, इस प्रकार अनेक बाँस बांधकर सबसे ऊपर वाले बाँस के सिरे पर लटका दिया और घोषणा की कि जो श्रमण, ब्राह्मण, अर्हत् या ऋद्धिमान् हो, उसे यह दान दिया जाता है। वह इस पात्र को उतार कर ले लें।

इसके बाद पूरण कस्सप, मङ्खली गोशाल, अजित केसकम्बली, पकुध काच्यायन, संजय वेलट्ठिपुत्त एवं निगण्ठ नातपुत्त भी क्रमशः श्रेष्ठी के पास आए और अपने को अर्हत् व ऋद्धिमान् बतलाते हुए पात्र की याचना की। लेकिन उस पात्र को उतारने में कोई भी सफल नहीं हुआ। तब बुद्ध के साधु पिण्डोल भारद्वाज आकाश में उड़े और पात्र को ग्रहण किया। इस बात का पता चलने पर बुद्ध ने कहा कि एक तुच्छ पात्र के लिए धर्मऋद्धि-प्रातिहार्य तूने कैसे दिखाया?…

समीक्षा– महावीरस्वामी ने छद्मस्थावस्था में दीक्षा के प्रथम पारणे में मात्र एक बार ही बहुल ब्राह्मण के घर पात्र में आहार ग्रहण किया था, फिर आजीवन करपात्री ही रहे थे। उन्हें चंदनपात्र क्या, किसी भी पात्र की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। साधक को साधना में विचलित करने वाले मोह के तेरह काठियाओं (विध्वंसकों) के त्याग का हमेंशा उपदेश देने वाले महावीर स्वयं इस तरह के कौतुक आदि में प्रयत्नशील हों यह संभव नहीं है। तीर्थंकरों का आचार है कि, केवलज्ञान प्राप्ति होने के बाद गोचरी (भिक्षा) वे स्वयं लेने नहीं जाते किन्तु उनके शिष्यों का ही भिक्षा में लाया हुआ भोजन लेते हैं। अतः यह मुद्दा ही जैनागमों में वर्णित महावीरस्वामी के उपदेश, आचार-व्यवहार से सर्वथा विपरित है।

महावीरस्वामी ने अपने साधुओं को भी पात्रैषणा के कड़े से कड़े नियम बतलाए हैं, जो आचारांगसूत्र के पात्रैषणा अध्ययन आदि में दृष्टिगोचर होते हैं, यथा- बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमगा णावकंखंति तहप्पगारं….अर्थात् अनेक श्रमण-ब्राह्मण-अतिथि-कृपण-भिखारी भी नहीं इच्छे ऐसे फेंक देने योग्य पात्र की भिक्षा के माध्यम से गवेषणा करें। महद्धणमुल्लाइं…” ड़े मूल्यवान् पात्र की गवेषणा न करें। मंताजोगं काउं भूईकम्मं च जे पउंजंति……मंत्रादि प्रयोगों का भी जैन शास्त्रों में निषेध किया गया है। विद्यापिंडमंत्रपिंडचूर्णपिंडयोगपिंड आदि साधु के लिये त्याज्य कहे गए हैं। अर्थात् मंत्र-विद्या-चमत्कारिक चूर्ण का प्रयोग करके, अंजनपादलेप आदि योग के प्रभाव से, अष्टांगनिमित्त (भविष्यकथन, ज्योतिष प्रयोग) आदि से पिंडभिक्षा आदि लेना निषेध है। जहाँ सामान्य साधु को भी उन्हें तपबल से प्राप्त रिद्धि का प्रदर्शन करने का निषेध किया गया है, वहाँ महावीर स्वयं रिद्धि प्रदर्शन करने जाएँ वह संगत ही नहीं है। केवलज्ञानियों का यह आचार है किवें कभी भी अपनी ऋद्धि का प्रदर्शन नहीं करते हैं। दीर्घदृष्टि से विशिष्ट कल्याणकारी हेतुओं के लिए आगम संमत आपवादिक स्थानों में यदि सक्षम एवं अधिकृत साधु को रिद्धि का प्रदर्शन करना भी पड़े तो योग्य ज्ञानी गीतार्थ छद्मस्थ (केवलज्ञान विहीनतथा परम समता की भूमिका में नहीं रहे साधु ही रिद्धी का प्रदर्शन कर सकते हैं। जैन आगमों में यह प्रसिद्ध हैं कि जब गौशाला के ऊपर तापस ने क्रुद्ध होकर के तेजोलेश्या छोड़ी थी तब साधक अवस्था में रहे हुए महावीर ने सामने शीत लेश्या ोड़कर गौशालक को बचा लिया था। उसी गौशालक ने जब केवली अवस्था में रहे हुए उन्हीं महावीरस्वामी के ऊपर क्रोधावेश में आकर तेजोलेश्या छोड़ी थी तब स्वयं के रक्षण तक के लिए भस्मीभूत करने में समर्थ उस अत्यंत गर्म तेजोलेश्या को ठंडा करने के लिए अपने पास रही हुई शीत लेश्या को सामने छोड़ी नहीं थी। क्योंकि केवलज्ञानी किसी प्रकार कि अपनी ऐसी विशिष्ट शक्ति का प्रयोग कभी नहीं करतेयह केवलियों का आचारकल्प है। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि बौद्ध ग्रन्थ की यह बात भी जैनागमों में वर्णित महावीरस्वामी के जीवनआचरण एवं उपदेशों के साथ कहीं पर भी तालमेल नहीं रखती है।

यहाँ बौद्ध ग्रन्थ के निवेदनों के पीछे आशय यह सिद्ध करने का नज़र आता है कि महावीरस्वामी चंदनपात्र के लोभी थे, महत्वाकांक्षी थे, उनमें खुद की क्षमता एवं विचारशक्ति तो थी ही नहीं और क्षमता का विचार किये बिना ही अपना झंडा गाड़ने हेतु चल पड़े, वह ऐसे एक सामान्य आदमी से भी गए गुज़रे बुद्धिहीन थे। बौद्धों के पक्ष में देखा जाए तो अन्य ६ धर्माचार्यों को नीचा दिखा देना, जो उस समय के तथाकथित महान के रूप में प्रस्थापित ये अन्य ६ धर्म अग्रणी नहीं कर सके, वह उनके पिण्डोल भारद्वाज जैसे एक भिक्षु ने कर दिखाया। फिर ऐसी तुच्छ वस्तु के लिए शक्तिप्रयोग नहीं करना चाहिए, ऐसा बुद्ध के मुख से बुलवाकर बुद्ध को महान भी बता दिया। इन सारी बातों का सामान्यजन इस प्रकार विश्लेषण किए बिना ही अभिभूत हो जाते हैं और उनकी परंपरा में ऐसे ही चलता रहता है। प्रसंगों को थोड़ा ध्यान से देखने पर यह कथा कपोलकल्पित होना सहज समझ में आ जाता है। 

  • 5. छः शास्ता (संयुत्त निकाय-अट्ठकथा, सगाथा वर्ग, ३ कोसल संयुत, १ वर्ग १ दहरसुत्तवण्णना के आधार से)

प्रसंग- पूरण कस्सप, मङ्खली गौशाल, निगण्ठ नातपुत्त, संजय वेलट्ठिपुत्त, पकुध कच्चायन, अजित केससम्बली, यह छः शास्ता-आचार्य “हम बुद्ध हैं” ऐसा प्रचार करते-करते जनपदों में एक साथ विचरण करते हुए श्रावस्ती नगरी में आए। उनके भक्तों के द्वारा राजा को निवेदन करने पर राजा ने उन्हें उनके भक्तों के माध्यम से आग्रहपूर्वक निमंत्रित कर राजा के वहाँ भिक्षा ग्रहण करने के लिए उन्हें बाध्य किया। 

अंततः वह सभी घभराते हुए एक साथ एकत्र होकर राजा के वहाँ गए। राजा द्वारा बिछवाए गए बहुमूल्य आसनों पर वे न बैठकर धरती पर ही बैठ गए। इससे राजा को हुआ कि इनमें शुक्लधर्म नहीं है, अतः उन्हें भोजन प्रदान नहीं किया। राजा द्वारा “तुम बुद्ध हो या नहीं?” ऐसा प्रश्न पूछने पर वे सारे ही शास्ता घबराकर सभी ने उत्तर दिया कि “हम बुद्ध नहीं हैं।” राजा ने रुष्ट होकर उन्हें राज-प्रासाद से निकलवा दिया। 

बाहर खड़े भक्तों के द्वारा पूछे जाने पर वे बोले कि, राजा बुद्धत्व के विषय में अनभिज्ञ होने से यदि “हम बुद्ध हैं ” ऐसा उत्तर देते तो राजा का मन हमारे प्रति दूषित होता, अतः हमनें ही कह दिया कि हम बुद्ध नहीं हैं। इसके बाद बुद्ध को महिमामंडित किया गया है।

समीक्षा– 

  • 1. यहाँ सबसे पहली बात तो यह है कि महावीरस्वामी इस तरह कभी किसी अन्य धर्मगुरुओं के साथ मिले हों और किसी राजा के यहाँ कभी गए हों ऐसा कोई उल्लेख जैन आगमों में नहीं मिलता। किसी अन्य के साथ की बात तो छोड़ो, कभी स्वयं अकेले भी किसी राजा के यहाँ पर इस तरह से गयें हों वैसा भी कोई उल्लेख नहीं मिलता। तीर्थंकर बनने के बाद महावीरस्वामी जहाँ विराजमान होकर उपदेश देते थे वहीं राजा आदि सारे लोग धर्म श्रवण के लिए आते थे।
  • 2. महावीरस्वामी ने राजपिंड ग्रहण करने का ही अपने साधुओं को स्पष्ट निषेध किया है, तो वैसे में वे स्वयं कैसे राजा के वहाँ जा सकते हैं। पंचम अंगसूत्र श्री भगवतीसूत्र के पंचम शतक के उद्देशक ६ में पाठ है कि- आहाकम्मं अणवज्जे'त्ति मणं पहारेत्ता भवतिसे णं तस्स ठाणस्स अणालोइय अपडिक्कंते कालं करेति नत्थि तस्स आराहणा।……….एतेणं गमेणं नेयव्वं……..रायपिंडं। अर्थात् आधाकर्मी आहार (साधु के लिए बनाया गया आहार) यावत् राजपिंड के लिए मन में अवधारणा मात्र हो जाए कि यह लेना दोष रहित है, तो साधु यदि (ग्रहण तो किया ही नहीं है, मात्र मन से विचार ही किया है, फिर भी) उसकी आलोचना एवं प्रतिक्रमण किए बिना ही कालधर्म को प्राप्त हो जाए तो वह आराधक नहीं है। इतने कड़क नियमों को बताने वाले महावीर भिक्षा के लिए स्वयं राजा के वहाँ गए, ऐसी बौद्ध ग्रन्थ की यह बात जैन अंगसूत्रों के साथ संगत नहीं होती है, उतना ही नहीं पूर्णतया विपरीत है। जैनागमों में अन्यतीर्थिक के साथ भिक्षाचर्यादि में जाने का स्पष्ट निषेध हैयथा- आचारांगसूत्र श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ का पाठ- 

से भिक्खू वा भिक्खूणी वा जाव(गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए) पविसिउकामे णो अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा परिहारिओ अपरिहारिएण सद्धिं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसेज्ज वा णिक्खमेज्ज वा।

अर्थ- भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर प्रवेश करने के इच्छुक दोषों का वर्जन करने वाले साधु या साध्वी अन्यतीर्थिकों या गृहस्थों के साथ भिक्षार्थ गृहस्थ के घर में प्रवेश करें नहीं और निष्क्रमण भी न करें। स्वयं के तीर्थ में भी दूषित साधुओं के साथ न जाएँ।

अपने साधु-साध्वीओं के लिए इतना कठोर नियम बताने वाले महावीरस्वामी का पाँच-पाँच अन्यतीर्थीकों के साथ वह भी राजपिंड के लिए राजा के वहाँ जाना, जैन आगम से सर्वथा विपरित है।

  • 3. एक बात यह भी कि पँच महाव्रतों में मृषावाद का निषेध करने वाले महावीर को जूठ बोलने का कोई प्रयोजन ही नहीं है। जो राजा के सामने व भक्तों के सामने कहा गया। निगण्ठ नातपुत्त का इस प्रकार का व्यवहार जैन आगमों में वर्णित महावीर के व्यक्तित्व से मेल नहीं खाता है। 
  • 4. यहाँ कहे गए छः धर्माचार्यों में से मङ्खली गोशालक के अलावा जैनागमों में किसी का भी उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। महावीरस्वामी ने मङ्खली के साथ भी इस तरह से एकत्र होकर के विचरण किया हो वैसा भी कोई उल्लेख नहीं मिलता है। 
  • 5. यदि निगण्ठ नातपुत्त को महावीर माना जाए तो बौद्ध ग्रन्थ के उपरोक्त निवेदनों के द्वारा महावीरस्वामी सहित सभी छः धर्माचार्यों को डरपोक, जूठे एवं भक्तों के समक्ष माया कपट करने वाले के रूप में दर्शाने की कोशिश की गई है। एक सामान्य साधक भी जिस स्तर का वर्तन न करे ऐसी निम्नकक्षा पर महावीरस्वामी को जताने की चेष्टा की गई है। इस कथा में नगर के राजा का नाम नहीं दिया गया है। 
  • 6. श्रामण्य-फल (दीघ निकाय, सामञ्जफल सुत्त, १-२-३.५ के आधार से)

प्रसंग- कौमुदी के पूर्णचंद्र की रात्रि का अत्यंत ही आह्लादक समय था। इस विशिष्ट क्षण को सफल बनाने के लिए मगध नरेश अजातशत्रु ने अपने मंत्रियों को कहा कि, मुझे शांति मिल सके उसके लिए मैं इस रात्रि में किस श्रमण ब्राह्मण का सत्संग करुं? तब एक मंत्री ने महाराजा अजातशत्रु को वृद्धत्व के कारण अपने जीवन की अंतिम अवस्था में आए हुए पुरण कस्सप आदि छः धर्म अग्रणियों में से पूरण कस्सप के पास जाने का उन्हें सुझाव दिया परंतु राजा मौन ही रहे, तब अन्य-अन्य मंत्रीयों ने एक-एक करके शेष पांच धर्माचार्यों के पास जाने का भी सुझाव दिया परंतु फिर भी राजा मौन ही रहे। 

अंत में बुद्ध के अनुयायी प्रसिद्ध वैद्य जीवक के कहने पर 500 हथनियों के उपर अपनी 500 महिलाओं को बिठाकर उनके साथ वह बुद्ध के पास गए वहाँ जाते ही वे चमत्कृत हो गए एवं वहाँ बुद्ध के पास जाकर विस्तृत रूप से प्रश्न किया जिसका संक्षिप्त सारांश यह है कि “भन्ते! आजीविका हेतु विविध शिल्पों के माध्यम से व्यक्ति जीविका उपार्जन कर प्रत्यक्षतः सुखी होता है, क्या उसी प्रकार इसी जीवन में श्रामण्य का प्रत्यक्ष फल भी पाया जा सकता है? ” तब बुद्ध ने कहा कि क्या यह प्रश्न तुमने दूसरे श्रमण-ब्राह्मणों से भी पूछा है? जवाब में राजा ने विविध छः धर्माचार्यों से मिलने की एवं उनके द्वारा मूल प्रश्न के जवाब को छोड़ अन्य विभिन्न, विचित्र एवं अनर्गल बातें कही होने से स्वयं औपचारिकरूप से हाँ में हाँ करते हुए असंतुष्टी के साथ खड़े हो जाने की बात कही। उसमें निगण्ठ नातपुत्त की भी बात कही, जो इस प्रकार है- भन्ते ! मैंने निगण्ठ नातपुत्त से भी यह प्रश्न पूछा, तब उन्होंने मुझे चातुर्याम संवरवाद बतलाया। उन्होंने कहा- निगण्ठ चार संवरों से संवृत्त रहता है- १. वह जल के व्यवहार का वर्जन करता है, जिससे जल के जीव न मरें, २. वह सभी पापों का वर्जन करता है, ३. सभी पापों के वर्जन से धुतपाप होता है और ४. सभी पापों के वर्जन में लगा रहता है। इसीलिए वह निर्ग्रन्थ गतात्मा, यतात्मा और स्थितात्मा कहलाता है। राजा ने कहा भन्ते ! मेरा प्रश्न तो था प्रत्यक्ष श्रामण्य फल के बारे में, और निगण्ठ नातपुत्त ने वर्णन किया चार संवरों का। भन्ते ! यह भी (अन्य धर्माचार्यों की तरह) वैसा ही था, जैसे पूछे आम और उत्तर दे कटहल, पूछे कटहल और उत्तर दे आम। मैंने (पूर्व धर्माचार्यों की तरह) उनके कथन का भी न अभिनन्दन किया और न ही निन्दा की। उनके सिद्धान्त का न मैंने स्वीकार किया और न उनका निरादर ही किया। मैं मौन रहा एवं आसन से उठकर चला आया। फिर बुद्ध ने जो जवाब दिए उससे संतुष्ट हो राजा बुद्ध को समर्पित हो गया।

समीक्षा– 

  • 1. यह बात यहाँ ध्यान देने योग्य है कि यहाँ के कथनानुसार पूरण कस्सप आदि छः के छः उस वक्त वृद्ध हो कर अपने जीवन की अंतिम अवस्था में थे। उपरोक्त उपालि वाले प्रसंग के अनुसार महावीरस्वामी की मृत्यु खून के वमन हो जाने के बाद तुरंत ही कुछ समय में हो गयी थी। इन दोनों प्रसंगों को मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि, पहले अजातशत्रु वाला प्रसंग हुआ और उसके कुछ ही समय के बाद उपालि वाला प्रसंग हुआ और नाटपुत्त की मृत्यु हुई। ऐसे में निम्नोक्त मुद्दे विचारणीय बनते हैं-
    • a. जैन आगमों में मिलने वाले विस्तृत उल्लेखों से कम से कम मंखली गोशालक के लिए तो यह बात बिलकुल ही संगत नहीं हो रही है। अन्य ५ तो जैनागमों में नहीं आते हैं, लेकिन मंखली गोशालक का वर्णन पँचम अंगसूत्र भगवतीसूत्र के शतक १५वें में विस्तार से आता है। उसमें रहे कुछेक पाठों से गोशालक के वर्षों का तथा उम्र का पता चलता है। यथा- 

महावीरस्वामी के द्वारा मंखवृत्ति के समय को दर्शाते हुए 'उम्मुक्कबालभावे विण्णायपरिणयमेत्ते जोव्वणगमणुपत्ते' (सूत्र-20कहा है। अर्थात् बाल्यभाव से मुक्त होकर परमविज्ञ और परिपक्व बुद्धिवाला होकर यौवनावस्था को प्राप्त हुआ तब स्वयं स्वतंत्ररुप से हाथ में चित्रपट्ट लेकर मंखवृत्ति से आजीविका चलाने लगा और घुमतेघुमते महावीरस्वामी के साथ स्वयं शिष्यत्व ग्रहण करके रहने लगा था। इन बातों से अनुमानितः गोशालक की उम्र २० वर्ष की होगीतब महावीरस्वामी के पास स्वयं प्रव्रजित हुआ होगा।

श्रावस्ती नगरी में गोशालक के द्वारा महावीरस्वामी के ऊपर तेजोलेश्या के किए गए प्रयोग के प्रसंग में सूत्रकार का पाठ- 'चतुवीसवासपरियाए' (सूत्र-5टीकाकार अभयदेवसूरि का अर्थ– 'चतुर्विंशतिवर्षप्रमाणप्रव्रज्यापर्यायः' अर्थात् तब गोशालक का प्रव्रज्या पर्याय २४ वर्ष का था। महावीरस्वामी ने ३० वर्ष की उम्र में दीक्षा ग्रहण की थी और गोशालक उनके पास दो वर्ष के बाद आया थाअतः महावीरस्वामी का तब दीक्षापर्याय गोशालक से  वर्ष अधिक था अर्थात् उस प्रसंग के समय गोशालक का दीक्षापर्याय २४ वर्ष और महावीरस्वामी का दीक्षापर्याय २६ वर्ष का था। (केवलीपर्याय १४ वर्ष का था

इस समय गोशालक के द्वारा महावीरस्वामी पर छोड़ी गई तेजोलेश्या का महावीरस्वामी पर असर न होने पर क्रुद्ध होकर गोशालक के द्वारा कहा गया था कि आपको अभी भले कुछ नहीं हुआ, लेकिन ६ माह के बाद आपकी मृत्यु होगी, तब महावीरस्वामी ने कहा था कि – 'अहं णं न्नाइं सोलस वासाइं जिणे सुहत्थी विहरिस्सामि, तुमं णं गोसाला ! अप्पणा चेव सएणं तेएणं…..सत्तरत्तस्स पित्तज्जरपरिग्गयसरीरे….कालं करिस्ससि' (सूत्र– 80)' अर्थात् मैं गंधहस्ती की तरह अन्य १६ वर्षों तक तीर्थंकर के रूप में विचरण करूँगा। हे गोशालक ! तूं स्वयं अपनी ही तेजोलेश्या से पराभूत होकर सात रात्रि के अंत में पित्तज्वर से पीडित होकर छद्मस्थावस्था में ही कालधर्म को प्राप्त होगा। छः माह के बाद विचरण करते हुए महावीरस्वामी मेंढिक गाँव में आए थे तब महावीरस्वामी को तेजोलेश्या के कारण रोगातंग का प्रादुर्भाव हुआ थातब लोक में इस बीमारी को लेकर महावीरस्वामी का कालधर्म हो जाएगाऐसी बातें फैली थीं। महावीरस्वामी के प्रति अत्यंत भक्तिवान् सिंह अणगार बच्चे की तरह तब वन में रो रहे थे। महावीरस्वामी ने शिष्यों को भेजकर उन्हें बुलाया और समझाया। उस समय महावीरस्वामी ने श्वासन देते हुए जो कहा थावह मूलपाठ में इस प्रकार है– 'अहं णं न्नाइं अद्धसोलसवासाइं जिणे सुहत्थी विहरिस्सामि(सूत्र– 121)' अर्थात् मैं अन्य आधे सोलहवें (साढे पंद्रहवर्ष तक गंधहस्ती की तरह तीर्थंकर के रूप में विचरण करूँगा। फिर निर्दोष बीजोरापाक के सेवन से वे स्वस्थ हो गए थे और साढे पंद्रह वर्ष तक जीए थेउपरोक्त बातों से अनुमान लगाया जा सकता है कि गोशालक की मृत्यु ४४ वर्ष की उम्र में हुई थी। यहाँ बौद्ध ग्रन्थों में जो वृद्ध होने का कथन आता हैवह इस प्रकार जैनागम के पाठ के साथ संगत नहीं होता है। अर्थात् गोशालक मृत्यु के समय में वृद्ध नहीं थे तो अजातशत्रु के प्रसंग में वृद्ध होने का कोई प्रश्न ही नहीं होता है 

  • 1. जैन आगमों में कल्पसूत्र आदि में महावीरस्वामी के निर्वाण का प्रसंग खूब ही सुन्दर रूप से मिलता है। अंत समय में वे राजा की रज्जू शाला में चातुर्मास हेतु विराजमान थे। खुद निर्वाण की अमावस्या स्थिति के पूर्व उन्होंने दो उपवास किए थे एवं निरंतर 16 प्रहर यानी की 2 दिन तक निरंतर धर्म-देशना दी थी, जिसका कुछ अंश आज उत्तराध्ययन सूत्र में संकलित है। एक गाँव में खून का वमन होना फिर टीका में आए वर्णन के अनुसार कूड़े के ढेर में महावीर को अन्य गांवों में ले जाया जाना और फिर वहाँ पर कुछ ही समय में उनकी मृत्यु हो जाना, ये सारी बात जैन आगमों के उल्लेखों के साथ बिलकुल ही संगत नहीं हो रही है।
  • 2. राजा अजातशत्रु जो राजा बिंबिसार श्रेणिक का पुत्र था। श्रेणिक की महावीरस्वामी के प्रति भक्ति आगमों में प्रसिद्ध है। राजा श्रेणिक का पूरा परिवार महावीरस्वामी का उपासक था। इस परिवार से मेघकुमार आदि कई लोगों ने महावीर के पास दीक्षा भी ली थी। यथा छट्ठे अंगसूत्र ज्ञाताधर्मकथा के पहले ही अध्ययन में पाठ है- 

सेणियस्स रण्णो धारिणी नामं देवी होत्था…..मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं पुरओ कट्टु जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेंति करेत्ता वंदंति नमंसंति वंदित्ता नमंसित्ता…..(सूत्र-३४)

अर्थात् राजा श्रेणिक को धारिणी नामक रानी थी। उससे मेघकुमार पुत्र हुआ था, मेघकुमार के साथ राजा श्रेणिक एवं धारिणी रानी महावीरस्वामी के पास आए, तीन प्रदक्षिणा दी, प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया, वंदना की आदि विस्तृत अधिकार इस अंगसूत्र में है। 

श्रेणिक के पुत्र अजातशत्रु कोणिक की भी महावीरस्वामी के प्रति अपार भक्ति थी। वह परमात्मा महावीर का परम उपासक था। इसका प्रमाण औपपातिकसूत्र आगम में बहुत ही विस्तार से दिया गया है। ऐसे परम उपासक कोणिक महावीरस्वामी के बारे में उपरोक्त निवेदन करे वह बौद्ध ग्रन्थ की बात जैनागमों से विपरित है। बौद्ध ग्रन्थों से कहीं ज्यादा उल्लेख जैनागमों में महावीरस्वामी के सान्निध्य एवं भक्ति के रूप में अजातशत्रु के बारे में भरे पड़े हैं। इसकी अलग से समीक्षा की जाए तो एक लघुपुस्तिका बन सकती है। 

यहाँ पर बुद्ध के मुँह से सीधा जवाब न दिलवाकर यह पुछवाना कि यह प्रश्न उन्होंने किसी और से भी किया था क्या? और फिर आजातशत्रु के मुँह से यह कहलवाया गया है कि, हाँ मैंने पूछा तो था लेकिन किसी के भी जवाब से मुझे संतोष नहीं हुआ और तब बुद्ध के जवाब से उन्हें संतोष हुआ हो वैसा यहाँ पर दर्शाया गया है।

  • 3. निगण्ठ नातपुत्त के बारे में बौद्ध ग्रन्थ में चातुर्याम धर्म की बात कही है, वह जैनागमों से सम्मत नहीं है। जैन आगमों के अनुसार अजितनाथ से पार्श्वनाथ तक के तीर्थंकरों के समय में ही चातुर्याम धर्म की पालना बतायी गयी है, महावीरस्वामी ने तो चातुर्याम बंद करवाकर पंचमहाव्रतरूप पञ्चशिक्षात्मक धर्म का उपदेश दिया था। कल्पसूत्र आदि जैन आगमों के अनुसार चातुर्याम धर्म में पांच महाव्रततों में से चौथा महाव्रत अलग से नही बताकर पांचवें परिग्रह विरमण महाव्रत में ही समाविष्ट कर दिया होता है। जबकि यहाँ चातुर्याम धर्म का जो स्वरूप बताया है वह जैन आगमों के साथ कहीं पर भी तालमेल में नहीं है। कच्चे पानी को गरम करने के बाद वह फिर ठंडा हो जाए या गरम रहे, उसे लिया जाता है। बौद्ध ग्रन्थ में दर्शित इस प्रकार की व्रत-परिकल्पना और भी किसी नाम से जैन-परम्परा में नहीं मिलती है। यहाँ प्रस्तुत विवरण जैनागमों से बिलकुल विपरित है।
  • 4. इस तरह की गतात्मा, यतात्मा और स्थितात्मा की बात भी जैनागमों में कहीं पर भी नहीं आती है। यहाँ प्रस्तुत शीतोदक-वर्जन की बात के संदर्भ में देखा जाए तो जैनागमों में अचित शीतोदक तो लिया जाता है, लेकिन सचित कच्चे पानी का निषेध है। इस कथा के माध्यम से बौद्ध ग्रन्थ ने राजा के मुख से महावीरस्वामी को प्रश्न पूछे कुछ और उत्तर दे कुछ, ऐसे असंगत उत्तर देने वाले सिद्ध करने का प्रयास किया है। 

 

निष्कर्ष- 

यदि बौद्ध संमत निगण्ठ नाटपुत्त को महावीरस्वामी मान लिया जाय तो…

 प्राचीनकाल से ही एक खास मानसिकता रखने वालों लोगों द्वारा विविध धर्मों, सम्प्रदायों के बीच तथा अपने-अपने पेटा-सम्प्रदायों के बीच वाग्युद्ध, शास्त्रार्थ एवं एक-दूसरे को निर्बल दिखाने की प्रवृत्तियाँ होती ही रही हैं। उसमें भी विशेष करके अपने सम्प्रदाय की महिमा बढ़ाने के लिए अपने समय के या पूर्व समय के परंपरागतरूप से चले आ रहे बहुजनमान्य धर्मों, महान् धर्माचार्यों के लिए हीनता भरी बातें फैलाना, उन्हें नीचा दिखाकर अपने पंथ को महान् बताने के लिए किसी भी प्रकार के जूठ प्रपंच का सहारा लेना, उसके सहारे मनघडंत कथाएँ एवं निवेदोनों को तैयार करके प्रवाहित करना आदि सदियों से चला आ रहा है। यह खास प्रकार के लोगों की एक सर्व सामान्य मानसिकता रही है। एक बार लोग जिस पंथ के अनुयायी बन जाते हैं, फिर वे लोग अन्य धर्मों में क्या लिखा है आदि समीक्षा करने के लिए प्रायः नहीं जाते हैं। अपने धर्मगुरु अपने धर्मग्रंथ ने जो बातें बता दी होती हैं, उसे ही महान् मानते हुए जीये चले जाते हैं। 

बौद्ध ग्रन्थों में उल्लिखित बातों का भी कुछ ऐसा ही निष्कर्ष निकलकर आता है। अपने समय से पूर्व के एवं अपने समय में बहुजनमान्य प्रख्यात धर्मसम्प्रदायों, वर्धमान महावीर जैसे धर्म स्थापकों को हीन, महत्त्वाकांक्षी, बुद्धिहीन, लोभी, अज्ञानी, इर्षालु, क्रोधी, द्वेषी, असंगत बात करने वाले, जूठे, डरपोक, खुद की शक्ति का आकलन किए बिना ही कूद पड़ने वाले, मंदमति आदि बताकर उनके अनुयायियों का मनोबल तोड़ने का इरादा एवं अपने अनुयायियों के मन में बुद्ध के प्रति विशेष अहो भाव उत्पन्न करवाने तथा अन्यों के प्रति कृतज्ञता का भाव नष्ट करने का इरादा प्रतीत होता है। साथ ही उस समय के जनसमुदाय में उच्च स्थान रखने वाले उन धर्म नायकों में से किसी एक को समर्पित राजा महामंत्री, अग्रणी, श्रेष्ठी आदि बहु- प्रतिष्ठित लोगों को उन धर्म नायकों से विमुख होकर अहोभाव एवं आडंबर के साथ बुद्ध के शरण में जाते हुए की बात भी जन सामान्य को रंजित कर उन्हें भी उसी दिशा में परोक्ष रूप से प्रेरित करने का एक जाना -माना तरीका है, जैसे कि इस मानसिकता वाले लोग हमेंशा से आजमाते आये हैं। 

महावीरस्वामी के बारे में कुछ भी कहने से पूर्व उनके सिद्धान्तों, उपदेशों एवं व्यक्तित्व आदि का थोड़ा अभ्यास करके खंडन किया होता तो परिपक्वता का परिचय मिलता। यहाँ तो स्वंय को किसी प्रकार की प्रमाणित जानकारी नहीं है और दूर से किसी के द्वारा सुनी-सुनाई बातों को आधार बनाकर सर्वथा विपरित रूप से कुछ भी मनघडंत लिख दिया प्रतीत होता है। संभव यही लगता है कि साम्प्रदायिक व्यामोह में आकर यह सारी बातें बाद में इस प्रकार की खास मानसिकता के अनुसार किसी परावर्ती लेखक द्वारा लिखकर ग्रंथों में प्रक्षिप्त कर दिया गया हो। ऐसी मानसिकता कुछ खास प्रकार के जीवों में प्रत्येक समय में रही है। अभी हाल ही की बात है, वर्ष 2023 के उत्तरार्ध में गुजरात में एक तेजी से उभरते धर्म संप्रदाय के लोगों द्वारा बहुजन वर्ग के अत्यंत आस्था स्थानों की गरिमा हनन हो उस तरह के कृत्य एवं व्यक्तव्य किये गये थे। जिसका मीडिया में भी खूब कवरेज हुआ था। 

 बौद्ध ग्रन्थों में बार-बार छः धर्मगुरुओं को एक साथ विचरण करते हुए दर्शाया गया हैं। क्या वे सारे ही इतने असमर्थ थे कि हरवक्त साथ में ही घूमा करते थे और वह भी बुद्ध के आसपास में बुद्ध से अपमानित होने के लिये ! उनके पास और कोई काम ही नहीं था क्या? इन उपजाई गई बातों से सम्प्रदाय कभी महान नहीं बनता। जैनागमों में उल्लिखित संपूर्ण वीतरागता के धनी महावीर का बौद्ध ग्रन्थोल्लिखित निवेदनों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। 

बुद्ध एवं महावीर अपने जीवनकाल में कभी भी मिले हों या उनके अनुयायियों के द्वारा कुछ भी संवाद हुआ हो यह बात यहाँ सर्वथा गलत साबित होती है। यहाँ प्रस्तुत कपोलकल्पित कथा-प्रसंगों के आधार से जो यह प्रस्थापित करने का प्रयत्न किया गया है कि बुद्ध एवं महावीर दोनों ही समकालीन थे वह बात इस आलेख में दिए गए स्पष्टीकरण के आधार से निराधार सिद्ध होती है।

जब अनेक साक्ष्यों से यह प्रस्थापित हो ही चुका है कि, महावीरस्वामी के कम से कम 125 बर्ष के बाद ही बुद्ध हुए हैं। वैसे में इन दोनों को समकालीन बताने वाली यह सारी बातें सांप्रदायिक व्यामोह में परवर्ती किसी के द्वारा बुद्ध के नाम से गढ दी गई हैं, यह कहना सुसंगत होगा।

जब कि बुद्ध के उपदेशों का समग्रतया अवलोकन करते हैं तो जिस प्रकार का एक गरिमा संपन्न व्यक्तित्व उभर कर आता है, उस व्यक्तित्व के साथ इस व्यक्तित्व का कहीं पर भी ताल मेल नहीं दिखाई देता है।

निगण्ठ नाटपुत्त महावीर से भिन्न होने की संभावना में-

बौद्ध ग्रन्थों में जितना निगण्ठ नाटपुत्त के बारे में लिखा गया है, सही में वे पात्र एवं प्रसंग उस समय में हुए होते तो कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में जैनागमों में उसका उल्लेख होता, लेकिन जैनागमों में ऐसा कुछ भी उल्लेख नज़र आ नहीं रहा है। यहाँ एकपक्षी ही सारी बातें चल रही हों, ऐसा प्रतीत होता है। बौद्धग्रंथो में प्रयुक्त निगण्ठ नातपुत्त नाम को निग्गंठ नायपुत्त’, ‘निगण्ठ नायपुत्त’, ‘णिगंथ णायपुत्त’, ‘निगण्ठ नाटपुत्त’, ‘निग्गंठ नाटपुत्त आदि कई विकल्पों से हमने मात्र अंगसूत्रों में ही नहीं, शक्यत: तमाम जैन आगमों में देख लिया है। जैनागमों में साधु को निगण्ठ और महावीर को ज्ञातपुत्र जरूर कहा हैलेकिन कहीं पर भी निगण्ठ नातपुत्त इस प्रकार शब्द संयोजन वाला नाम हमें नज़र नहीं आया है। इस प्रकार नाम से तो कहीं भी जैन शा्त्र ज्ञातपुत्र महावीर और निगण्ठ नातपुत्त के साथ संबंध प्रस्थापित नहीं करते हैं। 

बौद्धधर्म की भी जैनधर्म के साथ कई बातों में समानता आती है, जिस पर कई विद्वानों ने कार्य किया है। रही बात इनसे जुड़े ‘निगण्ठ’ शब्द की। उसके लिए भी कोई विस्मय की बात नहीं है, यह साधु का सूचक शब्द है, उस समय में जैन के अलावा अन्य मतावलंबी भी इसका प्रयोग करते होंगे, जैसे बौद्धधर्म में जैनधर्म का श्रावक शब्द प्रचुरता से उपयोग में लिया गया है।

 

बुद्ध और महावीर समकालीन थे, यह प्रचलित मान्यता निगण्ठ नातपुत्त को महावीर मानने की अवधारणा पर आधारित है, लेकिन इस अवधारणा में नक्कर नींव का अभाव है और यह महावीर एवं बुद्ध की निश्चयपूर्वक समकालीनता प्रस्थापित करने में असफल है। निगण्ठ नातपुत्त की तुलना महावीरस्वामी से करनी एक ऐतिहासिक भूल है। 

महान विद्वान मुनि श्री नगराज जी इतिहास के महान् ज्ञाता, उच्चकक्षा के विद्वान थे, उनकी पुस्तक प्रेरणा का मुख्य स्रोत है। यह ५०० ईसा पूर्व के राजवंशों के प्राचीन इतिहास पर एक महान पुस्तक है। प्रस्तुत पुस्तक आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन, खण्ड- १ के काल-निर्णय प्रकरण में तथा पुस्तक THE CONTEMPORANEITY AND THE CHRONOLOGY OF MAHAVIRA AND BUDDHA में महावीर और बुद्धदोनों समकालीन होने के आधार परयह सिद्ध किया है कि महावीर, बुद्ध से भी पुराने थे और महावीर ने बुद्ध से पहले निर्वाण प्राप्त किया था। हालाँकिइस प्रकार की धारणाएँ उपरोक्त तर्कों के आधार पर निर्बल हो जाती हैं। हमारे शोध के आधार पर बौद्धमत महावीरस्वामी के निर्वाण से कम से कम १७० वर्ष के बाद प्रकाश में आया है, क्योंकि महावीरकालीन अंगसूत्रों में कहीं भी इनका उल्लेख नहीं है और आगमसूत्रों पर निर्युक्ति रचने वाले, महावीरस्वामी के निर्वाण के बाद १७० वर्ष तक रहने वाले भद्रबाहुस्वामी ने भी सूत्रकृतांगसूत्र में विविध मतों के अधिकार में जहाँ उल्लेख की प्रबल संभावना थी, वहीं पर भी ऐसा कोई उल्लेख नहीं किया है। (सूत्रकृतांगसूत्र के इस अधिकार की विशेष जानकारी हेतु देखें हमारा लेख जैन अंगसूत्रों के आधार पर बुद्ध एवं महावीर की समकालीनता की समीक्षा

महावीर एवं बुद्ध की समकालीनता के आधार हेतु मुनि श्री नगराजजी को (अपनी पुस्तक “आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन खण्ड १” में) निगण्ठ नातपुत्त को महावीर मानने का कारण यह बना होगा कि उनके समक्ष निम्नोक्त ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं थे। 

ज्ञात हो कि वर्ष १९८८ में जर्मनी में हुई बुद्धनिर्वाण के समय का निर्धारण करने वाली वैश्विक बौद्ध कॉन्फ्रेंस में ७० शोध पत्रों एवं ६५० संदर्भों के आधार पर महामंथन करते हुए इस कॉन्फ्रेंस ने बुद्ध का निर्वाण ईस्वी पूर्व ४०० से ४२३ के बीच में हुआ होने का निर्धारित किया है।

जब कि हेंस बेकर्ट का यह भी सुझाव है कि, “There cannot be much doubt that the Buddha’s Nirvan should be probably around 350 B.C.” वीरनिर्वाण से १७० (357 B.C.) वर्ष में हुए भद्रबाहुस्वामी की निर्युक्ति में बौद्धमत का उल्लेख न मिलना यह बात भी हेंस बेकर्ट के मत की पुष्टि करती है।

जैनिज्म एवं बौद्धिज्म के प्रसिद्ध विद्वान श्री पद्मनाभ जैनी ने अपनी पुस्तक "The Jaina Path of Purification" में निगण्ठ नातपुत्त को महावीर के रूप में घोषित नहीं किया है। इनकी एक फुटनोट में उल्लेख है कि जैनधर्म के सबसे बड़े जर्मन विद्वान हर्मन जेकोबी का कहना है कि "लेकिन मुझे अभी तक किसी भी पुराने जैन सूत्र में बुद्ध का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिला है, हालांकि उनमें जमाली, गोसाला और अन्य विधर्मी शिक्षकों के बारे में लंबी कथाएँ शामिल हैं " (यह निवेदन ईस्वी सन 1880 की जेकोबी की इंग्लीश पुस्तक के आधार से जैनी ने नोट किया है और जैनी की पुस्तक भी इंग्लीश में है, हमनें उसे हिन्दी में भाषांतर करके प्रस्तुत किया है।)

महावीरस्वामी की कालगणना, बौद्धधर्म की प्राचीनता आदि के लिए निगण्ठ नातपुत्त को अब कितना आधारभूत मानना, इस पर विद्वज्जन पुनः विचार करें। हम आशा करते हैं कि हमारे द्वारा प्रस्तुत की गई उपरोक्त बातें और संदर्भ विद्वानों को योग्य दिशानिर्देश देने में सहायक सिद्ध होंगे। 

 वैसे यह बहुत ही बड़ा विषय है। यहाँ पर तो हमनें कुछ चुने हुए प्रसंगों की ही समीक्षा की है। जब कि बौद्ध ग्रन्थों में निगण्ठ नाटपुत्त के अनेक संदर्भों में अनेक उल्लेख मिलते हैं। इसी तरह निगण्ठ-निगण्ठिओं के भी अनेक प्रकार से उल्लेख आते हैं। साथ ही श्रेणिक बिम्बिसार, अभय कुमार, मंखली गोशालक आदि इस तरह के अनेक प्रसंग आते हैं, जिनका उल्लेख प्राचीन जैन आगमों में भी मिलता है। इन सभी का भी गौतम बुद्ध के जीवन काल के साथ तालमेल नहीं हो रहा हैं। इन सभी प्रसंगों की स्वतंत्र एवं परस्पर तुलनात्मक ढंग से यदि समीक्षा की जाए तो हमारे उपरोक्त मंतव्य को समर्थन देने वाले और भी महत्वपूर्ण तथ्य सामने आ सकते हैं। हम विद्वानों को आमंत्रित करते हैं की इस विषय में और भी गहराई से समीक्षा कर अंतिम निर्णय तक पहुंचा जाए।

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संदर्भसूची-

 
 

  • 1. विनयपिटक, चुल्लवग्ग
  • 2. विनयपिटक, महावग्ग
  • 3. धम्मपद-अट्ठकथा
  • 4. संयुत्त निकाय-अट्ठकथा
  • 5. दीघ निकाय
  • 6. मज्झिम निकाय
  • 7. आचारांगसूत्र
  • 8. सूत्रकृतांगसूत्र
  • 9. भगवती अंगसूत्र
  • 10. ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र
  • 11. औपपातिकसूत्र
  • 12. मुनि श्री नगराजजी की पुस्तक- आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन
  • 13. मुनि श्री नगराजजी की पुस्तक- THE CONTEMPORANEITY AND THE CHRONOLOGY OF MAHAVIRA AND BUDDHA
  • 14. भद्रबाहुस्वामी रचित सूत्रकृतांगसूत्र निर्युक्ति
  • 15. पाली पब्लीकेशन बोर्ड बिहार गवर्मेन्ट द्वारा प्रकाशित एवं भिक्खु जगदीश कस्सप संपादित पुस्तक- महावग्गपालि
  • 16. बौद्धभारती ग्रन्थमाला-२४, स्वामी द्वारिकादास शास्त्री द्वारा प्रकाशित पुस्तक- मज्झिमनिकायपालि पृ. ६९५
  • 17. पाली पब्लीकेशन बोर्ड बिहार गवर्मेन्ट द्वारा प्रकाशित एवं भिक्खु जगदीश कस्सप संपादित पुस्तक-चुल्लवग्गपालि
  • 18. पद्मनाभ जैनी की पुस्तक- The Jaina Path of Purification
  • 19. INDOLOGICA TAURINENSIA, Proceedings of the International Symposium on JAINA Canonical and Narrative Literature, Volume XI 1983
  • 20. बौद्धभारती वाराणसी से प्रकाशित, स्वामी द्वारकादास शास्त्री संपादित पुस्तक- अङ्गुत्तरनिकायपालि भा.३
  • 21. भगवतीसूत्र पँचम अंगसूत्र (शतक-१४, उद्देशक-८ अंबड परिव्राजकाधिकार)
  • 22. कम्मपयडी
  • 23. तत्त्वार्थ सूत्र
  • 24. कल्पसूत्र
  • 25. सुत्तपिटक, खुद्दनिकाय अट्ठकथा, 3 महावर्ग, 6 सभीयसुत्तवण्णना
  • 26. अभयदेवसूरी कृत भगवतीसूत्र की टीका
  • 27. महावीर जैन विद्यालय मुंबई द्वारा प्रकाशित पुस्तक- वियाहपण्णत्तिसुत्तं, भा.-2, प्रकाशन वर्ष- वि.सं. 2034.

 
 

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Editorial English Summary of paper 15 

In this paper, the author has reviewed and critically analyzed several Buddhist texts that include statements and events associated with a figure named "Nigantha Natputta." He examined six specific incidents, among many others, in which Nigantha Natputta is mentioned. In each case, he analyzed the personality, character, and philosophical views attributed to Nigantha Natputta, particularly in relation to Buddhism and Jainism.

The author finds that, in all six instances, Nigantha Natputta's personality and character are contrary to those of Mahavira as described in the Jain Agamas. Moreover, in most cases, based on his low demeanor, they also conflict with Buddhist principles. He also linguistically examines the names Nigantha Natputta, Nayaputta, and similar names attributed to Mahavira, concluding that there are no connections between these names and Mahavira in the Jain Agamas. Like many other historians, he notes that the earlier Jain Anga Agamas do not mention Buddha or Buddhism. It is only in the Jain Agamas, compiled two to three hundred years after Mahavira's Nirvana, that some remarks on Buddhism appear.

The author concludes that Nigantha Natputta in the Buddhist texts is not the Jain Mahavira. Instead, he may have been the founder of an Ajivika-style sect or cult contemporaneous with Buddha, a sect that likely did not survive long after Buddha's Nirvana. The author also states that Nigantha Natputta and Buddha were not contemporaries of Mahavira.