एक दृष्टि में कृति परिचय : कृतिनाम– विवाहपटल–भाषा अर्थात् विवाहपटल का पद्यानुवाद, कर्ता–अभयकुशल, कर्ता के गुरु का नाम– पुण्यहर्ष–खरतरगच्छीय, भाषा–मा.गु., कृति प्रकार–पद्य. विषय–ज्योतिष, गाथा परिमाण–६३, रचना संवत्–अनुपलब्ध, संलग्न कुल हस्तप्रतों की संख्या–३५ है। वर्तमान में उपलब्ध सूचना के अनुसार यह जानकारी दी गई है। सूचीकरण कार्यगत प्रत संपादनादि कार्यों में शुद्धि–वृद्धिपूर्वक प्रत सम्बन्धी सूचनाओं में परिवर्तन सम्भव है। कृति की मूलभूत सूचनाएँ यथावत् रहेंगी।
प्रत परिचय– कोबा ज्ञानमन्दिर के हस्तप्रत भण्डार में उपर्युक्त कृति की कुल ३५ प्रतियाँ हैं। इसमें २२ प्रतें अपूर्ण व १३ प्रतें सम्पूर्ण हैं। यहाँ पर इन सभी प्रतों का परिचय देना अप्रासंगिक होगा। दो-चार प्रतें होती हैं तो वाचकों को प्रत की जानकारी के लिये अवश्य ही परिचय दे देते हैं, परन्तु अधिक प्रमाण में प्रतों का परिचय देना सम्भव नहीं है। संशोधन कार्य में अधिकाधिक प्रतें मिल जाएँ, इसके लिये उपलब्ध कुल प्रतों की जानकारी दी गई है। ये सभी प्रतें वि.सं. १९वीं से २०वीं के मध्य की हैं। कुछेक प्रतों में लेखन संवत् भी है। ज्योतिष विषयानुरागी संशोधन-सम्पादन पिपासु आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर-कोबा में आवेदन देकर इन प्रतों की छायाप्रतियाँ प्राप्त कर सकते हैं, इससे सम्बन्धित अन्य जानकारी भी प्राप्त कर सकते हैं।
विद्वान व कृति परिचय– प्रस्तुत कृति विवाहपटल/विवाहपडल के पद्यानुवादकर्ता बृहत्खरतरगच्छीय वाचक अभयकुशल हैं। इनके गुरु का नाम पुण्यहर्ष है। गच्छाधिपति श्रीजिनचन्द्रसूरि के धर्मराज्य काल में ये हुए हैं। प्रस्तुत कृति में रचना संवत् का उल्लेख तो नहीं है परन्तु, इनके द्वारा ही रचित ऋषभदत्त चौपाई में रचना संवत् मुनि ७ गुण ३ ऋषि ७ शशि १ अर्थात् १७३७ का सन्दर्भ मिलने से स्पष्ट हो जाता है कि वि.सं. १८वीं के ये विद्वान थे। इस कृति के अतिरिक्त इनकी अन्य रचनाएँ भी मिलती हैं, जैसे कि-उत्तराध्ययनसूत्र की सुगमार्थ टीका, ऋषभदत्त चौपाई इत्यादि। इनकी रचनाओं से पता चलता है कि ये बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। विविध भाषा व विषय के भी उच्च कोटि के विद्वान थे। प्रस्तुत कृति विवाहपटल संस्कृत भाषामय कोई जैनेतर कर्ता की मूल रचना का पद्यानुवाद है। संस्कृत न जाननेवाले अथवा तो अल्प संस्कृतज्ञों को लक्ष्य में लेकर, सर्वजनहिताय लोकभाषा में सरल पद्यमय ज्योतिषानुरागियों के लिये यह रचना की गई है। इसमें कुल गाथा संख्या ५६ से ६३ के आस–पास अन्य–अन्य प्रतों में देखी गई है। ज्योतिष विषय में विवाह प्रकरण एक महत्त्वपूर्ण अंग है, गृहस्थ जीवन का उद्भव स्थान ही विवाह है। यह संस्कार जितने शुभ लग्न, नक्षत्रादि उत्तम मुहूर्त्त में होगा, वह उतना ही मानव जीवन के लिये हितावह होगा। इसलिये विद्वानों ने विवाह संस्कार को केन्द्र में रखकर स्वतन्त्र रूप से विविध रचनाएँ की हैं।
विवाह पटल या विवाह पडल अर्थात् विवाह सम्बन्धी मुहूर्त्त मार्गदर्शक शास्त्र। ज्योतिष का अपना एक विशाल क्षेत्र है। वेदाङ्ग में शास्त्रों का मुख जैसे व्याकरण है, उसी तरह शास्त्रों का नेत्र ज्योतिर्वाङ्मय है। कहा भी गया है-ज्योतिषामयनं चक्षुः। यहाँ विवाहपटल नामक कृति की जानकारी दी जा रही है। अपने समय में यह कृतिनाम बहुचर्चित रहा होगा। इस नाम से कई स्वतन्त्र कृतियाँ मिलती हैं। किसी कृति में कर्ता नाम है तो किसी में नहीं है। गर्ग व शौनकऋषि प्रणीत प्राचीनतम विवाह पटल नामक कृति मिलती है। कोबा में उपलब्ध सूचना के आधार पर इससे सम्बन्धित अग्रलिखित विद्वानों के द्वारा रचित कृतियाँ मिलती हैं। मूलकर्ता के रूप में–१. गर्ग ऋषि, २. शौनकऋषि, ३. ब्रह्मादित्य, ४. श्री शंकरपंडित, ५. क्षेमंकर ब्राह्मण, ६. वाचनाचार्य शिवतिलक, ७. रामविजय, ८. हीरमुनि व ९. अज्ञातकर्तृक। अनुवादकादि के रूप में–१०. पद्यानुवाद–अभयकुशल (लेखस्थ कृति के कर्ता), ११. गौतमविजय, १२. मोतीराम, १३. रूपचंद, बालावबोधकार– १४. अमरसुंदर एवं १५. संबद्ध स्वरूप में–विवाहपटलानुक्रम पद्यमय–हर्षकीर्ति–नागपुरीय। इस तरह ज्ञात–अज्ञात कर्ता की कुल ५० जितनी कृतियाँ मिलती हैं। विवाहपटल एक प्राचीन ज्योतिष शास्त्र है। विवाहपटल का सन्दर्भ निशीथसूत्र उद्देशक–१३, भाष्यगाथा–४३६२ की चूर्णि अन्तर्गत-“विवाहपडलादिएहिं जोतिसगंथेहिं विवाहवेलं देति” से इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है।
इसके अतिरिक्त मूल, टबार्थ, बालावबोध के कर्ता अज्ञात कर्तावाले तो अनेक हैं। यह संकलन स्थूल दृष्टि से किया है। सूक्ष्मदृष्ट्या सन्दर्भादि में देखकर अथवा कृतियों को संपादन-संशोधनादि करने पर संख्या बढ़ भी सकती हैं। ये सभी संभवतः अप्रकाशित है। मूल कृति ही प्रकाशित नहीं तो पद्यानुवादादि के लिये कैसे विचार सकते हैं। इतनी बड़ी संख्या में मात्र एक ही विवाह पटल विषय पर उपलब्ध कृतियाँ अप्रकाशित हैं। कदाचित् कहीं किसी और स्थान से प्रकाशित हो, यह हमें ज्ञात नहीं है।
विवाह पटल का नाम लेते ही आदिवाक्य- जम्भाराति पुरोहिते हरिगते सुप्ते मुकुन्दे विभौ। सहसा मुख से निकल ही जाता है। यद्यपि इसका कर्ता अज्ञात है, तथापि सर्वाधिक प्रसिद्ध यही कृति है। इसी कृति पर अधिकतम टबार्थ, बालावबोध व पद्यानुवादवाली कृतियाँ मिलती हैं। अभयकुशलजी का पद्यानुवाद इसी कृति पर है। ज्योतिर्विद्यारसिक विद्वानों को एक बार विवाहपटल सम्बन्धी कृतियों पर ध्यान देना जरूरी है।
प्रारम्भ में कर्ता द्वारा मंगलाचरण में विद्या की देवी सरस्वतीमाता को प्रणाम करके अपने उपकारी गुरु का स्मरण किया गया है, यथा-
वाणीपद वंदी करी, श्रीपुण्यहर्ष सुप्रसाद। सुगम करी सूधो कहूं, विवाहरो विद वाद॥
इसके बाद अन्त में कृति की महत्ता दर्शाई है, यथा-
विवाहपडल ग्रंथ छै मोटो, कहतां कवही नावै तोटो। मंदलोक समझावण सारु, ए अधिकार कीयो हितकारु॥
कृति के अंत की प्रशस्ति गाथाएँ-
पुण्यहर्ष वाचक परगटा, परवादी गंजण उतकटा। तसु परसादै सुभमति लही, अभयकुशल वाचकए कही॥ भणै गुणजे संपत लहै, वली जस वास घणो गहमहै। गुरु पासै भणै ए सदा, कलाधीर सुख पामै मुदा॥
विवाह पटल विषयक कृतियों का स्वतन्त्र परिचय लेख द्वारा देने में काफी समय व्यतीत हो जाता। इसलिये एक इसी लेख में संक्षिप्त परिचय देने का प्रयास किया हूं। वाचक व संशोधकों से नम्र निवेदन है कि इन कृतियों को संपादन-संशोधन द्वारा श्रुतसेवा में हाथ बँटाकर जनहित हेतु उपकारी बनें। आपकी जिज्ञासा की पिपासा को तृप्त करना ही हमारा लक्ष्य व ध्येय है। अपना सुझाव अवश्य दें। सुज्ञेषु किं बहुना॥
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