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सूचीकरण शोध नवनीत लेखमाला- लेख २० बृहच्छान्ति स्तोत्र-गच्छभेद से प्रचलित पाठ परम्परा : एक परिचय पं. संजय कुमार झा

समाज में विधि-विधान, पूजा-पाठ, प्रतिष्ठा, उत्सव, मांगलिक कार्य व अन्य विविध अवसरों पर शान्तिस्तोत्र के पाठ का प्रचलन प्राचीन काल से ही रहा है। चाहे वैदिक परम्परा हो या जैन परम्परा विविध मांगलिक प्रसंगों में अथवा तो कोई विषम परिस्थिति उपस्थित होने पर शान्तिपाठ किया जाता है। यह पाठ शीघ्र फलदायक, महिमामय के साथ-साथ प्रभावक भी है। जनसामान्य के साथ-साथ संघ, समाज, राष्ट्र के कल्याण हेतु सर्वजनहिताय सर्वजनसुखाय की भावनाओं से ओतप्रोत यह पाठ है। किसी प्रतिकूल परिस्थिति में आ जाने पर जैसे कि रोग-शोक, विघ्न-बाधा, ग्रह-गोचर, भूत-प्रेतादि भय से ग्रस्त होने पर साधुभगवन्तों को विनती करके उनसे पाठ सुनने पर त्वरित फल देता है। साधुभगवन्तों का योग न मिलने पर गृहस्थ स्वयं भी इसका पाठ करके परम शान्ति का अनुभव करता है।

यहाँ केवल जैन समाज में प्रचलित शान्तिपाठों के बारे में यत्किञ्चित् परिचय देने का प्रयास कर रहा हूँ। जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजकों में तपागच्छीय व खरतरगच्छीय परम्परा में व्यवहृत शान्तिस्तोत्र में जहाँ-जहाँ पाठभेद मिलते हैं, उन स्थलों को यहाँ बताने का यत्न किया जा रहा है, बाकी जितने भी गच्छ हैं जिन्हें तपागच्छ परम्परा में प्रचलित बृहच्छान्ति स्तोत्रवाले पाठ से सम्मत है ही, इसलिये उन गच्छों के नाम या पाठ यहाँ उल्लेख नहीं करते हैं। जिसमें पाठ या पाठभेदयुक्त पाठ है, यहाँ उनके ही परिचय हैं। श्वे० मूर्तिपूजक परम्परा में दो प्रकार के शान्ति स्तोत्र मिलते हैं- १. बृहत् शान्ति स्तोत्र इसे बड़ी शान्ति, वृद्ध शान्ति व मोटी शान्ति भी कहते हैं। सामान्यतः स्नात्र पूजा के बाद यह पाठ किया जाता है। २. लघुशान्ति स्तोत्र यह मानदेवसूरि रचित है। लघुशान्ति में कोई मतान्तर या पाठान्तर नहीं है। यह स्तोत्र बृहच्छान्ति स्तोत्र के बाद की रचना है। बृहद्शांति के पाठभेद की जानकारी देने का यहाँ आशय यह भी है कि ज्ञानभंडारों के सूचीकरण में कार्यकर्ता  तपागच्छीय या खरतरगच्छीय पाठ का योग्य निर्णय ले सके और योग्य कृति को सूचीबद्ध कर सके। वाचक भी नई जानकारी से अवगत हों।  

बृहत् शांति स्तोत्रतपागच्छीय

संस्कृत भाषामय यह एक गद्य-पद्यात्मक स्तोत्र है। इसमें एक ही गाथा प्राकृत (अहं तित्थयरमाया…)में है। प्रारम्भ व अन्त में पद्यात्मक व बीच में गद्यमय पाठ है। प्रारम्भिक पद्यपाठ-भो भो भव्याः शृणुत वचनंक्लेशविध्वंशहेतुः॥१॥ इसके बाद गद्यमय पाठ शुरु होता है-भो भो भव्यलोकाः इह हि भरतैरावतविदेहसम्भवानांशत्रवः पराङ्मुखा भवन्तु स्वाहा। २४ जिन नाम के बाद प्राचीन पाठ “ॐ श्री ह्री धृति कीर्ति” शुद्ध पाठ होता है। सन्दर्भ हेतु ताडपत्र L.D. ३३९ लेखन संवत १५वीं द्रष्टव्य है, जब की वर्तमान में अशुद्ध पाठ “ॐ श्रीँ ह्रीँ धृति कीर्ति” का प्रचलन है। सन्दर्भ हेतु वि.सं. १९६६ में लिखित कोबा भंडार की प्रत संख्या. ३९८८२ द्रष्टव्य है। ज्यादातर मुद्रित पुस्तकों में “ॐ ह्रीँ श्रीँ धृति मति कीर्ति” पाठ देखा जाता है। उल्लिखित इन हस्तप्रतों में “मति” शब्द रहित पाठ मिलता है। अन्त में-श्रीमते शांतिनाथाय नमः शांतिविधायिनेव्याहरणैर्व्याहरेच्छान्तिम्॥४॥ इसके बाद-श्रीश्रमणसंघस्य शांतिर्भवतुशान्तिपानीयं मस्तके दातव्यमिति॥ इसके बाद क्रमशः ५ श्लोकों के पाठ के बाद कृति पूर्ण हो जाती है, यथा-नृत्यन्ति नृत्यं मणिपुष्पवर्षंकल्याणभाजो हि जिनाभिषेके॥१॥ शिवमस्तु सर्वजगतःसर्वत्र सुखी भवतु लोकः॥२॥  प्राचीन पाठ भवतु लोकः  ही है। सन्दर्भ हेतु  उपर्युक्त L.D. ३३९ ताडपत्र देखें।  वैकल्पिक  पाठ भवन्तु लोकाः यह पाठ भी प्रचलन में है। वि.सं. १६४८ में लिखित कोबा भंडार की प्रत संख्या १६०२४९  देखें। अहं तित्थयरमायासिवं भवतु स्वाहा॥३॥ उपसर्गाः क्षयं यान्ति… पूज्यमाने जिनेश्वरे॥४॥ कहीं-कहीं ध्यायमानेस्तूयमाने जिनेश्वरे भी पाठ मिलता है। अन्त में-सर्वमङ्गलमाङ्गल्यंजैनं जयति शासनम्॥५॥ यह श्लोक समाप्तिसूचक मङ्गल पाठ है। विधि-विधान, क्रिया, व्याख्यान, शान्ति पाठ या कोई अन्य स्थान, सभी स्थलों पर इसी श्लोक के पाठ के बाद समापन किया जाता है, इस पाठ के बाद कुछ भी बाकी नहीं रहता है।

बृहत् शांति स्तोत्रखरतरगच्छीय

तपागच्छीय पाठ की भाँति ही इसमें भी पाठ गद्य-पद्य सहित है। प्रारम्भ व अन्त दोनों में एक समान पाठ है, मात्र बीच के कुछेक वृद्धियुक्त पाठ है। यहाँ जो अन्तर या वृद्धिपाठ है, उसी का उल्लेख करते हैं, बाकी सभी पाठ तपागच्छवत् ज्ञेय है।

तपागच्छ में कर्णं दत्वा निशम्यतां निशम्यतां स्वाहा पाठ है, खरतरगच्छ में निशम्यतां शब्द एक बार ही है।

इसके बाद त्रैलोक्यपूज्यास्त्रैलोक्योद्योतकराः पाठ के बाद तपागच्छ के अन्दर मात्र वर्त्तमान चौवीसी का नाम बोला जाता है, जबकि यहाँ-अतीतवर्त्तमान   अनागत तीनों चौवीसी के नाम बोले जाते हैं। इसके बाद शेष सभी पाठ समान रूप से मिलते हैं।

स्थानकवासी परम्परा में शान्तिपाठ-परवर्त्ती काल में २१वीं सदी के विद्वान आचार्य घासीलालजी के द्वारा निर्मित अद्भुत नवस्मरण में अन्तिम स्मरण ३७ श्लोकात्मक शान्ति स्मरण है।

प्रारम्भिक श्लोक– शान्तिस्मरणमात्रेण, शान्तिः सर्वत्र जायते।
तदहं सम्प्रवक्ष्यामि, सर्वकल्याणकारकम्                                                  ॥१॥

अन्तिम श्लोक-शान्तिस्मरणपाठेन सर्वत्र शुभभावतः।
ऋद्धिः सिद्धिः सुखं सम्पज्जायते सर्वमङ्गलम्    ॥३७॥

दिगम्बर जैन परम्परा में प्रचलित शान्तिपाठइस परम्परा में पुष्पवृष्टि करते हुए पाठ करने का विधान है। संस्कृत व प्राकृत भाषामय २० श्लोकों में यह पाठ है।

प्रारम्भिक श्लोकशान्तिजिनं शशिनिर्मलवक्त्रं, शीलगुणव्रतसंयमपात्रम्। अष्टशतार्चितलक्षणगात्रं, नौमि जिनोत्तममम्बुजनेत्रम्॥

अन्तिम श्लोकजगदेकशरण भगवन् ! नौमि श्रीपद्मनंदितगुणौघ। किं बहुना कुरु करुणामत्र जने शरणमापन्ने॥

इस प्रकार शान्तिपाठ का एक अद्भुत ही प्रभाव है। किसी न किसी रूप में सभी आम्नायों में श्रद्धा व भक्ति के साथ भक्तजन स्वपर कल्याण की भावना को हृदयस्थ करके प्रभु से आत्मकल्याण और शान्ति की याचना करते हैं।

महामङ्गलकारी पर्युषण महापर्व की आराधना वाचकवर्ग किये होंगे ऐसी आशा है। वर्षान्तराल में मन-वचन-कर्म से किसी भी प्रकार के हमसे अपराध हुए हो अथवा लेखनजन्य किसी भी तरह की त्रुटियाँ हुई हो तदर्थ पूज्य साधु-साध्वीजी एवं आदरणीय वाचकवर्ग से मिच्छा मि दुक्कडम् की याचना करते हैं।

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