हस्तप्रत सूचीकरण कार्य अन्तर्गत छोटे-बड़े संशोधन में अलग-अलग प्रकार के अनुभव होते रहते हैं। इस बार के लेख में एक अलग प्रकार का ही अनुभव कराने का प्रयास कर रहा हूँ। हस्तप्रत विद्या से जुड़े विद्वानों को तो हस्तप्रत सम्बन्धी प्रायः वैविध्यपूर्ण अनुभूतियाँ तो होती ही हैं, परन्तु संपादन-संशोधन में संलग्न शोधार्थियों एवं महाविद्यालय-विश्वविद्यालय के विद्वानों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि-ऐसा भी होता है क्या ? हस्तप्रत संपादन-संशोधन में शुद्ध प्रति, सुवाच्य पाठ, संशोधित पाठ, प्राचीनतम प्रति, आदर्श प्रति आदि इन विलक्षण प्रतों में से एक भी लक्षण की सुन्दर और सम्पूर्ण प्रत मिल जाती है, तब तो विद्वान हर्षोत्फुल्ल होकर कार्य करने लगते हैं। लेकिन अच्छी प्रत जब हाथ में नहीं आती है, अर्थात् अशुद्ध व अपूर्ण प्रत, पाठ अवाच्य, पाठानुसन्धान भ्रामक हो तब तो विद्वान का श्रम और समय दोनो निरर्थक चला जाता है। अधिक समय और श्रम लगाने पर भी अपेक्षित परिणाम न मिलने पर कार्य के प्रति जो समर्पण होता है, उसमें अरुचि सी आ जाती है। सूचीकरण कार्य में चाहे जैसी भी प्रत हो परन्तु उसमें विद्यमान विषयवस्तु को यथासम्भव न्याय देना ही पड़ता है। यही सूचीकर्ता का दायित्व है। यहाँ भ्रामक पाठवाले उदाहरण को प्रस्तुत करने का यही लक्ष्य है कि वाचकगण प्रत में उपलब्ध गुण या दोष, पाठ ग्राह्य या अग्राह्य इन सबसे परिचित हों, ऐसा उदाहरण सर्वत्र सुलभ नहीं अपितु मात्र हस्तप्रत भण्डार में ही सम्भव होगा।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर के हस्तप्रत संग्रह में प्रत क्रमांक १६९८२५ में आप देख सकते हैं कि इस प्रत में विषयवस्तु की वस्तुस्थिति क्या है? पत्रांक उल्लेख रहित एकमात्र पन्नेवाली यह प्रत अपूर्ण है। अपूर्ण प्रत के परिचय अन्तर्गत यहाँ के प्रस्तावित नियमानुसार “प्रारंभ के पत्र नहीं हैं व प्रतिलेखक द्वारा अपूर्ण” की श्रेणि में यह प्रत आती है। अर्थात् मात्र एक ही पत्र है। प्रारम्भिक भाग के पाठ नहीं और प्रतिलेखक द्वारा अपूर्ण होने से आगे पाठ होने की भी सम्भावना नहीं है। ऐसी परिस्थिति में प्रत/कृति का क्या नाम होगा, पत्र क्रमांक क्या लिखा जाएगा। यह प्रश्न होता है। अतः उपलब्ध भाग का ही पाठ पढ़कर निर्णय करना होता है। वास्तविक पत्रांक का उल्लेख न होने से कृति के कद को देखते हुए काल्पनिक पत्रांक दिया जाता है। इसी तरह पाठ को पढ़कर कुछेक प्रतीकात्मक शब्दों के आधार एवं तकनीकी सहयोग से ढूंढ़ते हैं कि यह पाठ किस कृति का भाग है। मिल जाए तो उत्तम, नहीं तो नाम भी विषयवस्तु के अनुरूप काल्पनिक दिया जाता है। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि हस्तप्रतों में प्रतिलेखन पुष्पिका एवं कृतियों में रचना प्रशस्ति का कितना अधिक महत्त्व होता है। यहाँ कि शोधपद्धति से ढूँढ़ने पर एक अज्ञात व अपूर्ण कृति का वास्तविक नाम जानने में प्रायः सफलता मिल जाती है। अब इस कृति के बारे में जाने-प्रत/कृति नाम–शत्रुंजयतीर्थ रास है। इसके कर्ता खरतरगच्छीय शान्तिहर्ष के शिष्य जिनहर्ष हैं। अपूर्णता दर्शाने हेतु काल्पनिक पत्रांक ३ रखा गया है, लिखावट के आधार से प्रतिलेखन संवत् अनुमानतः २०वीं की प्रतीत होती है। पंक्तियों की संख्या कुल १३ है।
अब जो रोचक बात है एवं इस लेख को लिखने का जो आशय है, उसके बारे में बताते हैं- स्थानीय भण्डार के सूचीकरण नियमानुसार प्रत यदि सम्पूर्ण है तो उसका कुल परिमाण क्या है वह दर्शाना होता है। यदि प्रत अपूर्ण है तो कितने अंश में पाठ उपलब्ध है अथवा तो कितने भाग नहीं है, उसे स्पष्ट करने के लिये प्रत का प्रारम्भ से अन्त तक के बीच का पाठ ढूंढ़कर प्रत के पाठ के साथ मिलान किया जाता है। तभी वास्तविक स्थिति की जानकारी मिलती है। कई बार तो पत्र क्रमशः तो कई बार टुकड़ो-टुकड़ो में अनुपलब्ध होते हैं। ऐसी परिस्थिति में प्रत में उपलब्ध पत्रों के पत्र क्रमांक के अनुसार अपूर्णता प्रकार को सांकेतिक व निर्धारित वाक्य द्वारा स्पष्ट किया जाता है। इसी वाक्य के अनुरूप उपलब्ध पाठ का भी स्पष्टीकरण करना होता है, ताकि वाचकों को मालूम पड़े कि अपूर्ण भाग कितना है या कितना नहीं है पाठानुसन्धान और पत्रांक दोनों क्रमशः साथ-साथ मिलने पर ही योग्य पाठ पर विश्वास होता है। अस्तु।
अब इस प्रत में जो उपलब्ध पाठ है उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-
खंड–७ ढाल–२८ गाथा–६ अपूर्ण से ९ अपूर्ण तक, खंड–८ ढाल–१ दोहा–४ अपूर्ण से है व चौपाई गाथा–४ अपूर्ण तक लिखा है। विशेष सूचन–खंड–७ ढाल–२८ की गाथा–९ अपूर्ण में ही खंड–८ की पहली ढाल का दोहा–४ से क्रमशः लिखा है। भूल ऐसी हुई कि कल्पना ही नहीं कर सकते तो उस भूल को कैसे पकड़ सकते हैं? मात्र यहाँ दो अलग-अलग गाथाओं का ही सम्मिश्रण नहीं है बल्कि दो अलग-अलग खंड ७ व ८, दो अलग-अलग खंड के अलग-अलग ढाल यथा- खंड ७ की २८वीं ढाल व खंड ८ की १ली ढाल बिना कोई पूर्णता संकेत के क्रमशः लिखा गया है। यहाँ गाथा-६ से ८ तक तो क्रमशः गाथांक हैं, परन्तु ९वीं गाथा-गरुडव्यूह रच्यउ परभात, यादव प्रथम चरण और दूसरे चरण का प्रथम यादव शब्द के बाद ही अर्थात् इस चौपाई छंद में ही खंड-८ ढाल-१ दोहा-४ के दूसरे चरण का अंतिम शब्द प्रतिबंध शब्द से दोहा-४ के पाठ को पूर्ण किया है। यानी कि गाथा-८ के बाद ९ लिखने की जगह ४ लिखा होने से, चौपाई छंद व दोहाछंद दोनों के पाठ परस्पर सम्मिश्रित होने से यह बारीक सी भूल पकड़ में आई। हस्तप्रत के छायाचित्र का यथार्थ पाठ देखें-
यहाँ पर स्पष्ट रूप से देखा जा रहा है कि चौपाई और दोहा का पाठ किस प्रकार एक ही गाथा में मिल गया है। जिस किसी कारण से हुआ हो परन्तु सतर्क होकर तथा पाठ को मिलान करके संशोधन कार्य में प्रवृत्त होना चाहिए। यहाँ प्रतिलेखक की भूल या दोष बताने का जरा भी हेतु नहीं है। हमें ऐसा लगता है कि इस तरह की भूल की वजह से ही प्रतिलेखक ने यह पत्र बिना नंबर दिए अधूरा छोड़ दिया होगा एवं नए पत्र में व्यवस्थित लिखकर कृति तो संपूर्ण की होगी।
प्रतिलेखक द्वारा लिखे गए ग्रन्थों के आधार पर ही आज हम सभी ग्रन्थज्ञान से लाभान्वित होते हैं। इनके उपकार को भुलाया नहीं जा सकता। यहाँ आशय यही है कि हस्तप्रत संपादन में प्रत के विविध स्वरूपों को पहचानें। विशिष्ट गुणों से युक्त भी हस्तप्रतें होती हैं तो कभी भूल वाली भी हस्तप्रतें होती हैं। हमें दोनों प्रकार की प्रतों से परिचित होना है। इस तरह अलग-अलग प्रकार के अनेक उदाहरण देखे जाते हैं। यद्यपि इस एक पत्र के संग्रह से उतना कोई लाभ नहीं हो सकता परन्तु इस पत्र के माध्यम से हम संपादन-संशोधन हेतु सचेत हो सकते हैं। एक ही प्रत पर नहीं एकाधिक प्रतों को इसीलिए संकलन करते हैं कि किस प्रत में कैसा पाठ है, अधिक उपयोगी कौन सी प्रत है। शुद्धि व वृद्धिपाठ किसमें अधिक है। साथ ही हमारे ज्ञानमंदिर में विकसित कम्प्युटर प्रोग्राम में ऐसी अपूर्ण प्रतों की सूचना भरने के कारण भविष्य में तकनीकी माध्यम से किसी ग्रंथ के अधूरे पत्रों को मिलाने पर प्रत संपूर्ण होने की संभावना भी रहती है। अगले अंक में पुनः एक नये नवनीतमय लेख की प्रस्तुति होगी।
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