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वाचक मानविजयजी कृत श्री वीतराग अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र – सा. आर्ययशाश्रीजी म.सा. (पू. नेमिसूरि समुदाय)

वाचक मानविजयजी कृत
श्री वीतराग अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र

सा. आर्ययशाश्रीजी म.सा.
(पू. नेमिसूरि समुदाय)

कृति परिचय-

आ कृति कलश सहित कुल २३ गाथामां रचायेली छे। पू. मानविजयजी म.सा. ए अद््भुतशैलीमां परमात्मानां १०८ नामोनुं गाथामां प्रास साथे निरूपण कर्युं छे। वितराग परमात्मानां १०८ नाम प्रथम ९ गाथामां वर्णवेलां छे। ते पछीनी गाथाओमां अकर्तापि कर्ता, अहर्तापि हर्ता, अभोक्तापि भोक्ता आदि विशिष्ट विशेषणो साथे प्रभुनां नाम, जाप, ध्यानथी आत्माने केवा-केवा लाभो प्राप्त थाय छे तेनी वर्णना साथे परमात्मानी स्तवना करी छे। कविए सारी उपमाओ द्वारा परमात्मानां नाम, जापनो महिमा वर्णव्यो छे, यथा तापथी मीण ओगळी जाय छे, तेम प्रभुना जापरूपी अग्निथी कर्म तत्क्षण बळी जाय छे। परमात्मानी आज्ञानुं महत्त्व बहु ज सरस रीते समजाव्युं छे यथा- “तुझ आंण प्राखें जिको धर्म भाखें, विणा लूण ते अन्ननो स्वाद चाखें” अर्थात् प्रभु तारी आज्ञा विना जे धर्म कहे ते लूण विनाना अन्ननो स्वाद चाखे छे। आम कृति खूब ज रसाळ छे। कृतिमां रचना वर्ष अने स्थळनो उल्लेख नथी। कृतिनी भाषा संस्कृतमिश्रित मारुगूर्जर छे।

कर्ता परिचय-

प्रस्तुत कृतिना अंते प्राप्त विगत प्रमाणे आ कृतिनी रचना पू. शांतिविजय म.सा. ना शिष्य वाचक मानविजय म.सा.ए करी छे। ते सिवाय कर्ता विशे विशेष कोई माहिती उपलब्ध नथी।

प्रत परिचय-

जैनानंद पुस्तकालय, सुरतमां संग्रहित हस्तप्रत क्रमांक ३०९६मां वीतराग अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र छे। १ पेज पर लगभग १० थी ११ पंक्ति तथा १ पंक्तिमां प्रायः १५ थी २८ अक्षर छे। बन्ने बाजु हांसियामां पार्श्व लाईन छे। अक्षर सुंदर, स्पष्ट अने समझाय तेवा छे। प्रतिलेखकनी असावधानीथी अमुक स्थाने पाठो अशुद्ध उताराया छे। जोके समझाय तेवा पाठने बाद करतां अत्रे शेष पाठो यथातथ राख्या छे। ते बाबत वाचको ध्यानमां ले।

श्री वीतराग अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र
।। श्री ऋषभदेवाय नमः ।।

स्वयंभू(भु) विभू(भु) शंभू(भु) सर्वज्ञ इ(ई)श, परत्मा परव्रन्य(ब्रह्म) पाता अनीश
सुरूपी अरूपी चिदानंदरूप, स्वयंबुद्ध संसुद्ध सिद्ध स्वरूप                       ।।१।।

अनादी(दि) अनासी अनासी अनासी, सुखासी नभासी उदासी अफासी
त्रिलोकाग्रवासी त्रिकाल-प्रकासी, सदाचिद्धि(द्वि)लासी अनब्ज(क्ष)त्ररासी    ।।२।।

अनिद्रो अमुद्रो समुद्रो तिमुद्रो, अतंद्रो अरूद्रो अछिद्रो अनिंद्रो ।
गुणातीत अर्हन् अमायी अनंत, गुणात्मा महात्मा महस्वी महंत                   ।।३।।

विधाता विधी(धि)ब्रह्म लोकेश विष्णू, जगद्व(वं)द्य देवादिदेव प्रभूष्णू ।
महासौख्यकृत् सार्वसंसारमुक्त, निरातंक निःसंग निःशोक शक्तः१०             ।।४।।

जिनो पारगो केवली वीतराग, महानंद निस्फंद११ अद्धै(द्वै)त१२ भाग ।
स्वयंवेद्य तीर्थंकरो तीर्थनाथ, जगन्नाथ अध्यात्मिक-प्राणनाथ                    ।।५।।

महामोहजेता जगद्भाववेत्ता, अपायापनेता१३ शिवश्री प्रणेता ।
प्रणष्टाष्टकर्मा गतोपाधि-धर्मा१४, विराजत् स्वधर्मा स्फूरत्पूर्णशर्मा१५              ।।६।।

शिवो१६ शंकरो सर्वदर्शी पुराण, पुमान् बुद्ध सांख्य प्रतितप्रमाण१७
महादेव मृत्युंजयो मार्गदायी, महेशो महाव्रत्यनंग-प्रमायी                           ।।७।।

अनंताऽच्युत१८ श्रीपती(ति) विस्व(श्व)रूप, हृषीकेश१९ अव्यक्त व्यक्त स्वरूप ।
अचिंत्यो अजो२० अव्ययो आत्मयोनि, अनेकांत संक्रांत निर्देशयोनि            ।।८।।

महाशांतिकृत् शांतिदो शांतिनिष्ट, महाप्रातिहार्य प्रभाव प्रकृष्ट ।
असंगी प्रसंगी अनंगी अभंगी, वरज्ञप्ति२१ दष्टयादि लिंगी अलिंगी                 ।।९।।

जिननाम ए एकसो आठ भास्यां, जिणें आपणा चित्तमांहि निवास्यां ।
टलें तेहनैं कष्ट संकलिष्ट भाव, जी(जि)नाधीशनों छै अचि(चिं)त्यानुभाव    ।।१०।।

अकर्तापि कर्ता अहर्तापि हर्ता, अभोक्तापि भोक्ता अयोक्तापि योक्ता ।
अनध्यक्ष अध्यक्ष लक्षो अलक्ष, अनेकोपि एको सपक्षो अपक्ष                ।।११।।

नमो भूर्भुवः स्वस्त्रयी नाथनाथ, करो दासनें हाथ देई सनाथ ।
प्रभो तुं मिल्यो जेहनें नाथ साथी, कहो किम रहें ते अनाथे अनाथी            ।।१२।।

करे स्युं ग्रहा संग्रहा कर्म केरा, लिइं उठि(ठी) जे नाम तेरा सवेरा ।
तुझ नाम जापै गले कर्म तापैं, यथा मीण तहखीण ते होइं आपें                 ।।१३।।

तुझ नाम पाठें सवी(वि) पाप धाठें, असुद्धाइ नाठें रहुं सु(शु)द्ध ठाठें ।
अहं बुद्धि जावें तुंही बुद्धि आवें, तुंही भाव पावें, प्रभु ध्यान फावें              ।।१४।।

पती(ति) तुं छती(ति) तुं गती(ति) तुं मती(ति) तुं,
युती(ति) तुं श्रुती(ति) तुं स्तुती(ति) तुं कृती(ति) तुं ।
नही कर्मनो नाश तुझ ध्यान पासें, तिणें चित्तमांहिं महायोगि(गी) राखें        ।।१५।।

नही रोगनैं शोगनो भोग तेहनें, रिदें२२ तुं वस्यो उल्लस्यो नाथ जेहनें ।
रहें जे वनी(नि)२३सी (सि)ह निरबीह२४ पोतें,
न होए तिहां स्वा(श्वा)पद२५ चार जोतें                                                 ।।१६।।

तुझ ध्याननो मुझ एहज उपाय, जपुं ताहरूं नाम भावें त्रिसाय२६
न को मंत्र नवि तंत्र नवि यंत्र एहवो, महानंदकारी तुझ नाम जेहवो             ।।१७।।

तुझ नामथी माहरूं मन भरायुं, वरायुं२७ परायुं ग्रहें नहीं हरायुं ।
ठरायुं थइं संभरायुं धरायुं, फरायुं विपर्यासथी तो सरायुं                            ।।१८।।

तुझ आंण प्राखें  जिको धर्म भाखें, विणा लूण ते अन्ननो स्वाद चाखें ।
बहु शास्त्र राखें मुधा ग्यांन धाखें२८, पणि स्वाद तो आम्रनो पक्क साखें       ।।१९।।

न धर्मो स(सं)न्यासे नही गेहवासें, न धर्मो उवासे२९ नही अन्न-ग्रासें३०
न धर्मो प्रवासें नही नित्यवासें, न धर्मो उदासें नही मोक्ष-आसें                  ।।२०।।

न धर्मो अवासें नही रण्यवासें, न धर्मो अभ्यासे नही रक्तवासें ।
नही श्वेतवासें नही मुक्तवासइं(सें), अछें तुझ दासें निरासैं उपासें                ।।२१।।

नही देहनें गेह तुझ किंम उपासैं३१, वरासें३२ नफासें३३ स्वपासे३४ नवासें३५
तथापि प्रभू ध्यानमाहिं रहीइं, वहीइं सिरि आण इंम गहगहीइं                   ।।२२।।

।। कलस ।।

इअ वीतरागें भक्तिरागें संत गुणकीर्तन करिउं,
संवेग जागैं भव विरागै ध्यांन जिननुं में धरिउं ।
बुध शांतिविजय विनेय वाचक मानविजय कहैं मुदा,
जिनराज नामें सीस नामैं होइं अविचल संपदा                                       ।।२३।।

।। इति श्री वीतराग अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रं ।।श्रीरस्तुः ।।

सं.०१७७९ वर्षे पोस शुदि ५ दिने लिपिकृतं । वाच्यमानश्चिरजीयां।

शब्दकोश

१ परव्रन्य(ब्रह्म)-विशुद्ध आत्मस्वरूपवाळा, २ पाता-रक्षण करनार, ३ अनीश-सर्वोच्च, ४ संशुद्ध-पवित्र, ५ नभासी-मौनी?, ६ अफासी–स्पर्श रहित, ७ अतंद्रो-तंद्रा रहित, ८ अरूद्रो-भयानकताथी रहित, ९ निरातंक-सर्व पीडा तथा भयरहित, १० शक्त-सामर्थ्यवाळा, ११ निस्फंद-स्थिर?, १२ अद्धै(द्वै)त-अभेद, भेदरहित, १३ अपायापनेता-अनिष्ट-विपत्ति-भय दूर करनार, १४ गतोपाधिधर्मा-उपाधि रहित धर्मवाळा, १५ स्फूरत्पूर्णशर्मा-प्रगट थयेल पूर्ण सुखवाळा, १६ शिवो-कल्याण करवावाळा होवाथी शिव, १७ प्रतितप्रमाण-अनेकांतवादथी सर्वसत्यवाळा, १८ अनंताऽच्युत-अनंत अवस्थाने पामेला पतित नहीं थनार, १९ हृषीकेश-इन्द्रियोना मालिक, २० अजो-जन्म रहित, २१ वरज्ञप्ति-श्रेष्ठ ज्ञानवाळा, २२ रिदे-हृदयमां, २३ वनी(नि)-वनमां, २४ निरबीह-निर्भय, २५ स्वा(श्वा)पद-हिंसक प्राणी, वाघ, २६ त्रिसाय-त्रण काळ, २७ वरायुं-ग्रहण करायेलुं, २८ धाखें-?, २९ उवासे-उपवासमां, ३० ग्रासें-खावामां, ३१ उपासैं-सेवा, उपासना, ३२ वरासे-?, ३३ नफासें-?, ३४ स्वपासे- पोतानी नजीक, ३५ नवासें-?