एक दृष्टि में कृति परिचय : मूलकृतिनाम- जातकपद्धति, कर्ता-हर्षविजय, गुरु-सुखविजय, भाषा-संस्कृत, कृति प्रकार-पद्य, विषय-ज्योतिष, श्लोक-९३, रचना संवत्-१७६५, रचना स्थल-नवीननगर, संलग्न कुल हस्तप्रतों की संख्या-५९, इनमें ७ प्रतें अन्य भण्डार की पीडीएफ के रूप में सम्मिलित हैं। जिनमें सम्पूर्ण-अपूर्ण दोनों प्रकार की प्रतें हैं। वर्तमान में उपलब्ध सूचना के अनुसार यह जानकारी दी गई है।
प्रत परिचय– कोबा में उपलब्ध उपर्युक्त ५२ प्रतों में से ३२ प्रतें सम्पूर्ण रूप में तथा २० प्रतें अपूर्ण रूप में हैं। यद्यपि सूचीकरण कार्य के अन्तराल में अपूर्ण प्रतें भी कई बार कृति के साथ संलग्न होने पर प्रत के पाठ व लक्षण आदि के मिलान से सम्पूर्ण हो जाती हैं। कई बार सम्पूर्ण प्रत भी समान विषय व पाठ होने से भ्रम या भूल से एक ही प्रत में पत्र मिल जाने से सूचीकरण के समय उसे भी योग्य न्याय मिल जाता है। यहाँ के भंडार में उपलब्ध ५२ प्रतों का परिचय देना प्रासंगिक और सम्भव भी नहीं है। स्थूल रूप से ही यहाँ परिचय दिया गया है। ये सभी लेखन संवत् १७९१ से लेकर २०वीं सदी की प्रतें हैं। ज्योतिष विषय के अनुरागी गवेषकों के लिये तथा शोधछात्रों के लिये संशोधन हेतु यह कृति एक उपहार सिद्ध होगा। अतः पाठान्तर, पाठवृद्धि आदि के साथ इन सभी प्रतों का सम्यक् परिचय इस कृति के प्रकाशन के साथ यथासमय पुण्यशाली संशोधक के द्वारा किया जाएगा। अपूर्णता के कारण अथवा लेखन काल का उल्लेख न होने से उन-उन प्रतों में लिखावट के आधार पर अनुमानित लेखन काल ४ अंकों के स्थान पर २ अंकों में है, जैसे कि १८वीं, १९वीं, २०वीं इस तरह दिया गया है। पत्रांक ४ से लेकर ३३ तक प्राप्त होते हैं। कई प्रतों में अपूर्णता के कारण पत्र-१ भी मिलेंगे। किसी प्रत में मात्र मूलपाठ तो किसी में टबार्थ सहित प्रतें सम्मिलित हैं। विद्वज्जन अपनी उपयोगिता के अनुसार आवेदन देकर यहाँ से प्रत की छायाप्रति प्राप्त कर सकते हैं। सामान्यतया प्रतों की स्थिति अच्छी है। इन प्रतों में आपको वैविध्यपूर्ण सूचनाएँ मिलेंगी जो रसप्रद होंगी।
कृति परिचय– प्रस्तुत कृति मुनि सुखविजयजी के शिष्य मुनि हर्षविजयजी रचित है। इस कृति के अलावा एक पर्युषणपर्व स्तुति एवं आदिजिन स्तवन नामक दो देशी लघु कृतियाँ भी प्राप्त होती हैं, लेकिन इनमें वर्ष का उल्लेख नहीं है, अतः वे इन्हीं विद्वान की रचनाएँ है कि अन्य की, वह संशोधन का विषय है। इसके अलावा इनकी और भी रचनाएँ हैं या नहीं यह ज्ञात नहीं हो पाया है। हर्षविजय नामक कई विद्वान हो गए हैं, परन्तु १८वीं सदी में सुखविजयजी के शिष्य हर्षविजय रचित अन्य कोई रचना नहीं मिल पाई है। किस गच्छ या किस परम्परा के हैं इसका कोई उल्लेख इन्होंने नहीं किया है। कृति के अन्तिम ४ श्लोकों में रचना प्रशस्ति मिलती है। गुरुनाम के साथ अपने नाम का उल्लेख इस प्रकार है-बुधसुखशिशुर्हर्ष पद्यैर्नवीनपुरातनैः बुध अर्थात् पंडित सुखविजयजी ने नूतन व पुरातन ऐसी इस पद्धति की रचना की। यहाँ तो नाम का केवल संकेत है परन्तु अगले श्लोक में हर्षविजय नाम का उल्लेख होने से इनका नाम पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाता है। इसी तरह रचना संवत् आदि का उल्लेख है-शररसमुनिचन्द्रोऽब्दे (शर ५ रस ६ मुनि ७ चन्द्र १=१७६५) ऽभ्रगुणांगमहीशके (अभ्र ० गुण ३ अंग ६ मही १=१६३०)। सितगजतिथौ पौषे मासे नराकरपत्तने॥ इस श्लोक के अनुसार वि.सं.१७६५ व शक संवत् १६३० पौषशुक्ल अष्टमी तिथि के दिन नराकरपत्तन यानि नरसमुद्रपत्तन में इस कृति की रचना पूर्ण हुई। इस श्लोक में उल्लिखित संवत् के अनुसार कृति व कर्ता का समय स्पष्ट हो जाता है। संक्षिप्त व सारभूत रूप यह रचना है। श्लोक-९३ में कृति पूर्ण हो जाती है। अलग-अलग प्रतों में श्लोक परिमाण में सामान्य अन्तर पाया गया है।
प्रारम्भ में मंगलाचरण अन्तर्गत भगवान पार्श्वनाथ, गुरुदेव एवं शारदामाता को वन्दन करके सुगम साधनयुक्त जातकपद्धति निर्माण करने की भावना की गई है। इससे स्पष्ट होता कि कृति का नाम जातकपद्धति है। रचना के अन्त में एक और नाम दृष्टिगोचर होता है-कृतोद्योतकरी विश्वेप्येषा जातकदीपिका। अर्थात् विश्व को प्रकाशित करने वाली जातकदीपिका नामक यह रचना। यूं तो ज्योतिष ग्रन्थों में जातकपद्धति नामक कर्तानाम सहित एवं कर्तानाम रहित ढेर सारी रचनाएँ मिलती हैं। इस ज्ञानमन्दिर में ही ४४ प्रकार के अलग-अलग स्वतन्त्र रूप से जातकपद्धति मिलती हैं। कहीं मुख्य नाम है तो कहीं उसके प्रचलित नाम के रूप में। इन कृतियों को लक्ष्य में लेकर सुधार किया जाए तो उपर्युक्त संख्या में न्यूनाधिक फेरफार संभव है। प्रसिद्ध विद्वान केशव भट्ट, श्रीपति, कृष्ण दैवज्ञ, जैन विद्वान में यशस्वत्सागर, महिमोदय एवं आधुनिक विद्वानों के भी नाम सम्मिलित हैं। ‘जातक’ शब्द ही ज्योतिष विषय में एक महत्त्वपूर्ण शब्द है। यदि ‘जातक’ शब्द से नाम ढूंढ़ा जाय तो शताधिक भी हो सकते हैं। ज्योतिषविद्या के जिज्ञासु और संशोधन पिपासुओं के लिये यह कृति उपयोगी सिद्ध होगी।
कृति का मंगलाचरण– प्रणम्य पार्श्वदेवेशं शारदां गुरुमेव च ।
सुगमां साधनोपेतां वक्ष्ये जातकपद्धतिम् ॥१॥
कृति का अंतिम प्रशस्ति श्लोक– तस्माद्विचार्य विद्वद्भि संशोध्या यततो मुदा ।
कृतोद्योतकरी विश्वेऽप्येषा जातकदीपिका ॥९३।।
अप्रकाशित ज्योतिष कृति की सम्भावना को ध्यान में रखकर परिचय दिया जा रहा है। कहीं से प्रकाशित यदि होगी तो उसकी हमें कोई जानकारी नहीं है। यदि अप्रकाशित ही है तो इसे प्रकाशित करने हेतु विद्वद्वर्ग सचेष्ट रहें। यही नम्र निवेदन है। सूचना प्रदान करने में कहीं भूल हुई हो तो नीरक्षीरविवेकी सुधीजन क्षमा करेंगे। नई-नई अप्रकाशित कृति के परिचय से लाभान्वित होकर अपना सुझाव अवश्य दें। सुज्ञेषु किं बहुना ॥
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