कृति परिचय
पू. सहजकीर्ति गणि रचित सुगुरु-कुगुरुनी आ छत्रीसी छे। संवत १६८४मां कारतक सुदमां पूज्यश्रीए आ छत्रीसी रची छे। सुगुरु अने कुगुरु कोने कहेवाय ? एनी चोटदार व्याख्याओ एक एक कडीमां जोवा मळे छे। जेने एक उदाहरण द्वारा जाणीए जेम के- पंच समिति त्रण गुप्ति समेत होय। विखवादने टाळनारा होय ए सुगुरु छे। ज्यारे, कुगुरुनी व्याख्या करता लखे छे के – रविवार अने सोमवारे एक टाणुं करे ने चौदसे चार वार जमे ए कुगुरुनी निशानी छे। आम तो अनेक दृष्टांत साथे आ कृति रसप्रद रीते वर्णवी छे।
आ आखी छत्रीसी एटली सरळ छे के वाचकने वांचता ज एनो अर्थ समजाई जाय ने कुगुरुने छोडी सुगुरु प्रत्ये एनी श्रद्धा दृढ बनी रहे। एक गाथा सुगुरुनी ने बीजी गाथा कुरुगुनी एम लगभग छेक सुधीनो ए क्रम जळवाई रह्यो छे।
धन्ना अणगार, गौतमस्वामी, चिलाती पुत्र, श्रीपाल, अंबड विगेरेना उदाहरणो पण अहीं मूक्या छे। वाचकने गमी जाय ने सद्गुरु तणो भेद परखाई जाय एवी आ रचना छे।
कर्ता परिचय
कृतिना कर्ता संदर्भे कृतिमां मात्र सहजकीर्ति नाम मळे छे, ते सिवाय तेमनी गुरुपरंपरा आदि विगतो उल्लिखित नथी। आ रचना वि.सं. १६८४मां थई होवाथी अनेक रचनाओना कर्ता सहजकीर्ति ते समयखंडना प्रसिद्ध कवि खरतरगच्छीय क्षेमशाखाना श्री हेमनंदन गणिना शिष्य होवा संभवे छे। आ ज वर्षमां रचेली तेमनी एक रचना शत्रुंजयमाहात्म्य रास पण मळे छे। कर्तानो समयकाल जैन गूर्जर कविओ भाग-२ पृष्ठांक-३९५ना उल्लेखानुसार वि.सं. १६६१ थी १७०४ सुधीनो प्राप्त थाय छे।
प्रत परिचय
आ कृतिनी एकमात्र हस्तप्रत भाभानो पाडो- ज्ञानभंडार, पाटण, डा. नं. ६७, प्रत नं. २६६२ ना आधारे संपादन कार्य करेल छे। अक्षर स्पष्ट अने सुवाच्य छे। आ प्रत नकल आपवा बदल त्यानां व्यवस्थापकोनो खूब-खूब आभार..
सुगुरु–कुगुरु षट्त्रिंशिका
।। सुगुरु तारइ सुगुरु तारइ, सुगुरुना गुण गाउ रे ।
अंध नइ१ देव२ जरि३ रूडी, दरसणें बलि जाउं रे ।।१।। सुगुरु….
कुगुरु पापी कुगुरु पापी, परि हरउ ततकाल रे ।
खिणि खिणइं दुःख देइ, कुगुरु जेम सरन[ण] उलास रे ।।२।। कुगुरु….
पंच सुमति दयाल साचउ, गुपत तीन समेत रे ।
हरखित वदन विखवाद टालइ, थिर सगति थिर चेत रे ।।३।। सुगुरु…
समकित नही लव लेस(श) चित्तमइ, ध्याव ए महा माय रे ।
खेत्रपाल नइ गोगा गुसाई४, जात सेवा जाय रे ।।४।। कुगुरु…
उपदेस(श) आपइ सहू सूधा, नही मनमइ खोट रे ।
लोक तारइ आप तरिनइ, लेई संजम ओट५ रे ।।५।। सुगुरु…
इक वार जिमइ नवरता नव, दिवस बयसइ ध्यांन रे ।
जस(श) काज विद्या काज पापी, धरमनइ करइ ज्यान रे ।।६।। कुगुरु….
व्रत अनइ पचखांण सूधा, करइ मन ध्रम६ जांणि रे ।
अरिहंत स(श)रणउ साधु स(श)रणउ, धरम सरण प्रमाणि रे ।।७।। सुगुरु….
आदीतवारइ सोमवारइ, जिमइ जे इम टक रे ।
चवदिसिइ जिमइं च्यारि वेला, कुगुरुनइ ए एक७ रे ।।८।। कुगुरु…
सझाय तप जप अनइ किरिया, मुन नित सावधान रे ।
जिनमत तणी महिमा वधारइ, सूरिमंत्र प्रधान रे ।।९।। सुगुरु…
वाद चरचा करइ हठ ले, सबल चित्त अहंकार रे ।
ज्ञान-किरियावंत मो सम, को नहि संसार रे ।।१०।। कुगुरु…
कालिक तणी परे सत्यवादी, अप्रमादी जेह रे ।
एहवउ गुरु देखि सेवउ, लहो जिम भव छेह रे ।।११।। सुगुरु…
नित करइ सरस आहार मीठा, धीत्त चित्त नही बीह रे ।
असतवादी नइ प्रमादी, वड वडइ राति दीह८ रे ।।१२।। कुगुरु…
करइ पर-उपगार साचा, सवा अविचल वाच रे ।
जिसउ बाहिर तिसउ भीतरि, जिनमतइं मन साच रे ।।१३।। सुगुरु….
कुडनइ करइं साच हठ ले, साचनइ करइ कूड रें ।
एहवउ गुरु जांणि सेवइ, जाय ते इह बूड रे ।।१४।। कुगुरु….
सिधांत जांणि परम अमृत, नित करइ सझाय रे ।
अमृत मुखउ अमृत वरसाइ, सज्जनइ सुख दाय रे ।।१५।। सुगुरु…
लेखे गिणइ नही लोक किहनइ, हुंइज जाण प्रवीण रे ।
हुंइज पंडित आज मोटउ, मुझ थकी सहू हीन रे ।।१६।। कुगुरु…
अरस निरस आहार भोजी, नही ममता मूल रे ।
अनगार धन्ना तणी परठइं, मुगतिनइ अनुकुल रे ।।१७।। सुगुरु…
मन तणउ मानिउ करइ कारिज, लाज सहुनी छोडि रे ।
नही समरथ पण उमांहे, वडांनी करइ होडि रे ।।१८।। कुगुरु…
भावना भावइ भरतनी परि, तजी माया-जाल रे ।
एहवा गुरु भणी थायुं, उठिनइ त्रिकाल रे ।।१९।। सुगुरु….
दिवस सारउ रहउ चरतउ, विरती दूरइं टाल रे ।
वांदीयइ नही कुगुरु एहवउ, कहइ उपदेस(श) माल रे ।।२०।। कुगुरु…
सरिस नंदक सरिस वंदक, स(श)त्रु-मित्र समान रे ।
कनक कचरउ मणि तृणा सम, जेइनइ इक गान रे ।।२१।। सुगुरु…
मूल गुणनें जे विराधइ, करइ स्त्रीसु वात रे ।
आपणउ तिणि जनम खोयउ, कुगुरु एम कहात रे ।।२२।। कुगुरु…
मदन जीपइ दुःखन छीपइ, नही राग नइ रोस(ष) रे ।
एहवा गुरु देखि देखी, मुझ मनइं संतोस(ष) रे ।।२३।। सुगुरु…
मंत्र मूली करइ ओषध, वसी(शी)करण अपार रे ।
करइं संजम रहइ अलगन, आप थायइ छार९ रे ।।२४।। कुगुरु…
सुगुरु सेव्यउ देइ सि(शि)व सुख, सरग१० सुख अभिराम रे ।
परदेसि केसिकुमार जीवउ, सदा लीजइ नाम रे ।।२५।। सुगुरु…
लोह११ नावा चढी नही, को पार जलनइ जाय रे ।
तिम कुगुरु सेव्यउ भव समुद्रथी, तारिवा न सहाय रे ।।२६।। कुगुरु…
गौतमइ तापस जेम तर्या, तिम चिलातीपूत रे ।
संगमउ सुमुखादि बहू नर, तारीया अवधूत रे ।।२७।। सुगुरु…
कुगुरुनी संगति बुरी छइ, जिसउ विसनउ घूट रे ।
दूध काजी नींब आंबउ, पांमीयउ जिम उंट रे ।।२८।। कुगुरु…
माता-पिता जे करी सकइ नही, गुरु करइ उपगार रे ।
गंगदत्तनी थे परव देखउ, निरनामिका१२ अधिकार रे ।।२९।। सुगुरु…
दुःख देइ सेव्यउ कुगुरु भवि भवि, कुही राब कंसारि रे ।
भोला न जांणे भेद ध्रम(न)उ, जाइ तेहनइ लार रे ।।३०।। कुगुरु…
सुगुरु सेवउ पाय लागी, करउ भगति विसेष रे ।
श्रीपाल राजा जेम तारइ, महिपालनइ देख रे ।।३१।। सुगुरु…
कुगुरु जिहां किणि वसइ, तिहांथी जाइ गाउ वीस रे ।
नित सुरवीर हीयइ मुखवइ कहीयइ, साच तिहां किसी रीस रे ।।३२।। कुगुरु…
सुगुरुना पग झालि रहीयइ, करि परीक्षा आप रे ।
अंबड तणी परि धरम धीरा, सुगुरु माता बाप रे ।।३३।। सुगुरु…
कुगुरु जांणी सुगुरनी परि, जेह सेवइ लोक रे ।
धरम तेहनउ ठाम न पडइ, जनम थायइ फोक रे ।।३४।। कुगुरु…
इम जांणिनइ ए भांति उभति, करउ जिम चित्त होइ रे ।
इग सरग बीजउ नरग मारग, समझिनइ कह्या दोइ रे ।।३५।। सुगुरु…
संवत सोलहसय चउरासी१३, सुथिर१४ काती मास रे ।
सुगुरु कुगुरु तणी छत्रीसी, सहजकीरति वाणि रे ।।३६।। कुगुरु…
।। इति श्री सुगुरु–कुगुरु षट्त्रिंशिका कृता वाचक सहजकीरतिगणिभिः ।।
। श्री सुरत बंदिर मध्ये लिखितं – पण्डित भाणचंद ।
शब्दार्थ
१. ने, २. भाग्य?, ३. जो?, ४. वैष्णवना धर्मगुरु, ५. नाव?, ६. धर्म, ७. रीत?, ८. दिवस, ९. राख, १०. स्वर्ग, ११. लोढुं, १२. अनामिका, १३. सोलसो चोर्यासी, १४. सुदी.
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